सामाजिक समरसता के सुमेरु : लोक शिक्षक गाडगे बाबा”
भारतवर्ष में सामाजिक विषमताओं से लड़ने और एक स्वस्थ समाज की संरचना के प्रयास लंबे अरसे से होते रहे हैं। आज के समता मूलक समाज की रचना के पीछे अनेक महापुरुषों का योगदान रहा है, जिन्होंने सामाजिक भेदभाव की महामारी से बचाने का संकल्प लिया और दलितोत्थान के लिए अथक प्रयास किये। उनमें से एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हुए हैं लोक शिक्षक गाडगे बाबा।
गाडगे बाबा का नाम उन समाज सुधार को में शुमार है, जिन्होंने विद्यालयीन शिक्षा प्राप्त न करते हुए भी समाज को शिक्षित किया। उन्होंने सदियों से भेद-भाव मूलक समाज के मध्य कार्य करते हुए जो अमानवीय व्यवहार देखा,परखा और भोगा, उसे शिक्षा की ढाल बना कर तत्कालीन शोषित – दलित समाज के उद्धार के लिए उपयोग किया जो एक मिसाल बना हुआ है।
लोक शिक्षक गाडगे बाबा का जन्म 23 जनवरी 1876 में महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेण गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम झिंगरा जी तथा माता का नाम सुखबाई था। जिस समाज में उनका जन्म हुआ था वह दलित होने के साथ-साथ आर्थिक रूप से अत्यंत ही दीन स्थिति में था। उनके पिता कपड़ा धोने का कार्य करते थे। बचपन में उनका जीवन संघर्ष भरा रहा । कम आयु में ही सिर पर से पिता का साया उठ गया था और वह अपनी मां के साथ मामा के गांव में गायें चराने का कार्य करते थे तथा अपनी माता और परिवार का भरण पोषण करते थे।
गाडगे महाराज जिस समाज के थे, उस समाज में उन दिनों बहुत सारी कुप्रथा का प्रचलन था। इन कुप्रथाओं के चलते लोग आर्थिक बोझ से लद जाते थे और जीवन भर मेहनत- मजदूरी कर ऋण चुकाते रहते थे।
अज्ञानता के कारण समाज की पीड़ा, व्यथा तथा कष्टों को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा और परखा था। बचपन से ही उनके मन में समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का विचार उद्वेलित रहता था।
गाडगे बाबा बचपन से धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे । उनकी धर्म में गहन आस्था तो थी, लेकिन धर्म की संकुचित परिपाटी का जमकर विरोध करते थे। लोक शिक्षक गाडगे बाबा भजन -कीर्तन के माध्यम से समाज में जागृति लाने का कार्य करते थे। उनका कहना था कि भगवान मंदिरों में नहीं, बल्कि गरीबों की सेवा करने वाले और गरीबों के बीच रहता है। इसलिए वह गरीबों तथा अन्य जीवों की सेवा करने की बात करते थे। वह समाज में घूम-घूम कर बुराइयों से दूर रहने की बात करते थे। वे जहां भी जाते यह समझते थे कि देवी-देवताओं की पूजा अर्चना में पशुओं की बाली मत चढ़ाओ। फ़ालतू के कार्य में पैसा मत फूंको । नशे से दूर रहो। बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दो। जाति और वर्ग के आधार पर किसी के साथ छुआछूत का व्यवहार मत करो। गाडगे बाबा का मानना था कि इंसान को कभी भी अछूत और दलित नहीं मानना चाहिए। गाडगे बाबा जाति प्रथा और दहेज़ प्रथा के खिलाफ थे और इसके विरुद्ध जीवन भर लड़ते रहे।
गाडगे बाबा पशु हत्या के सख्त खिलाफ थे। पशु हत्या के पीछे उनकी धारणा थी कि बलि चढ़ाने से भगवान खुश नहीं होते हैं। यदि बली से भगवान खुश होते हैं तो सबसे पहले वह उनकी बलि चढ़ा दें। जीव हत्या की विरोध में गाडगे बाबा अपनी बलि देने के लिए कहा करते थे।
जाति आधारित छुआछूत और भेदभाव के संदर्भ में उनका मानना था कि जाति केवल दो ही है। एक स्त्री और दूसरी पुरुष।
दलित समाज ,स्वर्ण समाज से बिल्कुल भी भिन्न नहीं है । जो लोग अपने को श्रेष्ठ मानते हैं, वह धूर्त और ईश्वर के प्रति बेईमानी कर रहे हैं । ऐसे लोग मानव जाति का अपमान करते हैं। हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं और एक समान है।
गाडगे बाबा की वेशभूषा फटे पुराने कपड़े होते थे और सर पर रंग बिरंगी टोपी पहनते थे। उनके एक हाथ में झाड़ू तथा दूसरे हाथ में मिट्टी का गडुवा रहता था। जब वह चलते थे तो रास्ता साफ करते हुए चलते थे। जो स्वछता अभियान मोदी जी चलाया , यह अभियान तो गाडगे बाबा 125 वर्ष पहले चला चुके थे। उनके पास हमेशा मिट्टी का गडूवा रहता था, इसलिए लोग उन्हें प्यार से गाडगे महाराज कहने लगे।
साधारण रहन-सहन , किंतु उच्च विचार से परिपूर्ण होने के कारण आसपास के क्षेत्र में वह पूजनीय हो गए थे। उनके प्रवचन से लोक प्रभावित होकर जब पैर छूते थे तो वह पैर छूने के लिए मना करते थे। उनका हर कदम सामाजिक परिवर्तन के लिए समर्पित था। वे जीवनपर्यंत दलितों को हिन्दू समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष करते रहे।
यह महामना लोक शिक्षक 20 दिसंबर 1956 को भौतिक काया छोड़कर हमेशा के लिए अमर हो गए। गाडगे बाबा का जन्म समाज सुधार और धर्म उत्थान के लिए हुआ था।
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डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’
लेखक स्वतंत्र स्तंभकार तथा सदस्य विद्या भारती मध्य क्षेत्र एवं मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निर्माण एवं देखरेख समिति