गंधर्वपुरी एक गुमनाम विरासत- सच्चे साक्ष्य के लिए अन्वेषण की आवश्यकता।
भारतीय सांस्कृतिक विरासत इतनी भव्य और विस्तृत है कि आज भी बहुत से ऐतिहासिक स्थल गुमनाम है। वहां अपार अन्वेषण की संभावना है। ऐसा एक मालवा का गांव है गंधर्वपुरी यह मध्यप्रदेश के देवास जिले की तहसील सोनकच्छ से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
गंधर्वपुरी हमारे भारत देश के अन्य हजारों-हजार गांवो की तरह है गंधर्वपुरी नाम ने चौंकाया जरूर है क्योंकि मालवा प्रांत में गांव के नाम इस तरह नहीं होते। करीब तीन से चार हजार की जनसंख्या वाले गांव में पहुंच मार्ग से कुछ दूरी पर एक साफ सुथरा प्रांगण है जहां पुरातत्व का फलक लगा हुआ है जिसे देखकर आप आश्चर्य चकित रह जाते है। आंखों को दिखने वाला दृश्य 11वी शताब्दी का दिखाई देता है। यहां करीब तीन सौ काले पत्थर पर तराशी हुई मूर्तियां है जिसमें अधिकांश जैन तीर्थंकर की है साथ में भगवान शिव पार्वती, माता दुर्गा, शेषशय्या पर लेटे पद्मनाभ स्वामी, रावण को कैलाश के नीचे दबाते शिव पार्वती भगवान विष्णु, भगवान कुबेर, नंदी के समक्ष प्रभु शिव से लिपटे नचिकेत आदि हिंदु देवी देवताओ की मुर्तिया देखने को मिलती है। श्रीकृष्ण के जन्म की प्रतिमा जिसमें माता देवकी नवजात कृष्ण को स्तनपान करवा रही है जो की.अत्यंत दुर्लभ प्रतिमा है। इसके साथ वराह, नायिकाएं, द्वारपाल की मूर्तियां भी देखने को मिलती हैं। स्पष्टत: ये अवशेष ब्राह्मी-जैन वास्तु शैली के उत्कृष्ट उदाहरण है। रह शैली सहज सिद्ध करती है कि हिंदु और जैन धाराएं एक ही मूल से हैं और सह अस्तित्व एक ही स्वभाविक जीवन शैली से है।
कलाकृतियाँ स्थानीय काले पत्थर पर तराशी गई है जो कि अत्यंत उच्च स्तरीय बनावट है केश विन्यास, धारण किये हुए गहने, भाव भंगिमा, मुद्रा, पौराणिक कथाओं के संदर्भ में, सभी बारीकियां उत्कृष्टता के साथ उकेरी है। सभी कलाकृतिया 11वी और 12वी शताब्दी में बनी परमार वंश की परंपरा विशेषत: राजा भोज के काल के प्रभाव को दिखाती है।
गांव में पुरातन शिव मंदिर भी है जिसे गंधर्व सेन मंदिर कहा जाता है। मंदिर पर भी कुछ अवशेष है यह मंदिर उसी काल का होने के प्रमाण मिलते हैं। मंदिर में देव विग्रह अक्षुण है और आज भी नियमित पूजा-पाठ का क्रम निरंतर है। अवशेष देखकर मंदिर की विशालता और भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। स्तंभ अवशेष, द्वारो पर लगी ड्यौढ़ी देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि मंदिर लगभग 50 फीट ऊंचा होगा। मंदिर का उत्तर काल में पुन: निर्माण किया गया जिसे आज भी देखा जा सकता है। एक छोटी नदी किनारे बसा यह मंदिर अपने समय में अत्यंत रमणीय प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर स्थल रहा होगा।
बताते है की पहले इस गांव का नाम महारानी चंपावती के नाम पर था फिर जब चंपावती के पुत्र गंधर्व सेन राजा बने तब गांव का नाम गंधर्वपुरी हुआ। गंधर्व सेन, उज्जैन के प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य और नाथ संप्रदाय के स्तंभ भर्तृहरि के पिता थे। जिनका कालखंड ईसा से लगभग 200 वर्ष पूर्व माना जाता है।
हांलाकि, ठोस अनुसंधान के अभाव में लोक कथाओं का इतिहास पता चलता है। पुराने लोग कहते है कि राजा की एक भूल की वजह से सभी नगर के निवासी यहां तक कि पशु पक्षी भी पत्थर के हो गए। उनके पुत्र विक्रमादित्य ने राजधानी उज्जैन स्थानांतरित कर ली।
बहरहाल गंधर्वपुरी का इतिहास उपलब्ध अवशेषो के कालखंड से कही अधिक प्राचीन है। संबंधित विभाग यहां इतिहास पुरातत्व वास्तुकला सम्बंधि अन्वेषण करे तो बहुत पुराना इतिहास सामने आएगा और संस्कृति का संरक्षण भी होगा। वहां रखी मुर्तिया धूप बारिश ठंड की मार नही सहेगी।