शिक्षा के स्तर को नीचे गिराता अंचल के जनजातिय लोगों का पलायन।
रिंकेश बैरागी,
शिक्षा समाज को वो शस्त्र है जिसके हाथ में आ जाने से बहुताय कुरिति एवं अज्ञानता का अंधकार दूर हो जाता है। सरकार क्षेत्र में शिक्षा का स्तर बढ़ाने के लिए अनेकोनेक जतन कर रही है मगर अधिक से अधिक प्रयास के बाद भी सरकार को अंचल में सफलता प्राप्त नहीं हो पा रही है। जिला स्तर पर कलेक्टर विद्यालयों और छात्रावासों में जाकर गुणवत्ता की परख कर उसे परिपक्व करने के लिए भ्रमण कर रहें हैं परंतु शाला त्यागी बच्चों के लिए किए जा रहें प्रयासो में प्रशासन पंगु की तरह प्रतित हो रहा है। साथ ही इसके, अंचल में होता पलायन जनजातिय क्षेत्र के बच्चों और विद्यार्थियों के लिए एक ऐसे दर्दनाक रोग की तरह है जिसमें छात्रों का भविष्य अज्ञानता के अंधकार का ग्रास बनता दिखाई दे रहा है वहीं जिन विद्यार्थियों का भविष्य इस घने अंधकार के कुएं में पहले से ही गुम हो चुका है वे भी इसी पीड़ा के साथ अपनी पीढ़ी को भी बचाने में असमर्थ है। इस असक्षमता का कारण सरकार और उनकी आधी फलीभूत होती योजना जिसे प्रशासन संचालित करने में कमजोर है, फिर प्रशासन पर चढ़ा भ्रष्ट्राचार का भूत नेताओ के अधीन आकर निर्धन लोगों को अज्ञानता के काले घने अंधकार वाले कूप में गिरा रहा है, जहां से चाह कर भी वो निकल नहीं पाते और अपनी पीढ़ियों को उसके पार लगाने में आर्थिक और सामाजिक बल से निष्क्रिय हो जाते है।
पलायन पर जाते पति पत्नी न चाहते हुए भी अपने बच्चों को ले जाते है, क्योंकि सीधी सी बात है बच्चा बिना माता पिता के घर पर कैसे रहें, उसका लालन पालन पोषण कौन करे… इसलिए मजबूरी में बच्चों को साथ में पलायन पर ले जाना ही पड़ता है। इस विवशता के कारण बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उन्हीं के आंगन में धोबी पछाड़ खा कर गिर जाती है फिर वहीं से शुरु होती है उस बच्चें की अज्ञानता के अंधकार की दर्दनाक यात्रा, जिसमें वह मजदूरी करते मां-बाप को देखकर अपने जीवन के लक्ष्य में मजदूरी को प्राथमिकता देता है क्योंकि न तो स्कूल के बारे में सोचता है न ही उसे पढ़ाई का कोई भान होता है।
कुछ लोग पलायन पर वर्षभर के लिए जाते है और वो मुख्य पर्व होली के पहले ही वापस आते है, कुछ पलायनकर्ता वर्ष में दो बार अपने घर की क्यारी में लगे पौधो को पानी देते है। ये दोनों ही चक्र इस प्रकार के होते है कि इसमें बच्चों की पढ़ाई होना असंभव होता है, उसकी बचपन की विद्यालयिन शिक्षा उससे कोसो दूर किसी खेत में या किसी बिल्डींग में या फिर किसी फेक्ट्री में माता-पिता की मजदूरी में महीन हो कर मर जाती है। पलायन का एक प्रकार और भी होता है जिसमें आंचलिक मजदूर बुआई, कटाई के समय जाकर यहां वहां अपने परिवार के साथ टोलियों में एक शहर से दूसरे शहर जाते है। इस चक्र में भी बच्चों की शिक्षा का मर्दन होता है, अधिकतर बच्चें तो ऐसे भी होते हैं जिनका तो गांव की आंगनवाड़ी में नाम भी नहीं लिखा जाता, बाद में उसी का नाम दर्ज कर वहां गर्भवती माता और बच्चें को मिलने वाले लाभ को गायब कर दिया जाता है।\
जीवन यापन के इस निःसहाय वृत्त में जिन बच्चों के शिक्षित होने पर प्रभाव डालता है वो जब इतने बड़े हो जाते है कि घर रुक सके तब कहीं उसको शाला में प्रवेश करवाया जाता है जहां वे अन्य छात्र-छात्राओं से शरीर और आयु में बड़े होते हैं, इन बच्चों में महज 2 प्रतिशत बच्चें होते है जो पढ़ाई की सिढ़िया चढ़ते हैं बाकी सभी निर्धनता के भाव में सिढ़िया चढ़ नहीं पाते या फिर वे फिसलकर पहले पायदान पर ही आ जाते है और उस पायदान से वो बच्चें पलायन की दिशा में अस्त होते सुरज की गति को देखकर फिर किसी रात के अंधेरे में अपने अज्ञानता से भरे अंधकार के जीवन की शुरुआत करते हुए घर ग्राम शहर जिला और राज्य छ़ोड़कर पलायन कर जाते है।
कुछ बच्चों के जीवन में कक्षाएं शुरु तो हो जाती है किंतु कार्य की अधिकता, परिवार की जिम्मेदारी और गांव की भूमि बचाने की ललक माथे पर मेहनत का पसीना ला ही देती है। एक परिवार जिसमें शराबी पिता, दिहाड़ी मजदूरी करती माता, एक बेटा जो मशीन सुधारने की दुकान पर मजदूरी करता और एक बेटी जो लोगों के घर की साफ सफाई का कार्य करती है। उस परिवार की इस दशा को देखते हुए जब इस कारण पर पहुंचा तो निर्धनता के वश में परिवार का पलायन प्रमुखता से सामने आया। परिवार के पास भूमि होते हुए भी वो खेती नहीं कर पाए क्योंकि जल की समस्या से खेत जुज रहा था, बारिश के मौसम में फसल कभी तो लाभप्रद होती तो कभी अर्थ का भी अनर्थ कर देती। जीवन एक दंश सा बन गया मजबूर होकर परिवार के मुखिया ने अपनी पुरखो की भूमी को सहुकारों के कर्जे से मुक्त होने के लिए बेच दी ताकि उसके बेटे कर्ज के बोझ में न रहें। उसके बाद उसके बेटो ने अपने जीवन की नैया को पार लगाने के लिए मजदूरी की राह अपनाई और पलायन कर गए। पिता की उस भूमि को भी एक बेटे ने बेच दिया जिस पर वो घर बना सकता था और शहर छोड़ कहीं दूर जा बसा। दूसरे बेटे ने अपने अतित के दर्दों को मिटाने के लिए शराब का सेवन शुरु कर दिया और दिहाड़ी मजदूरी कर साथ में स्वयं की मेहनत पर पिता की उस भूमि पर निवास के लिए एक मकान बना दिया। लेकिन निर्धनता की विवशता ऐसी रही की एक दिन भी यदि कार्य न किया जाए तो भूख की अगन को पानी से बुझाने की कोशिश में रात बितानी पड़ती, और इसी कारण से उस परिवार के पिता को नशे की लत लगी और बच्चें शिक्षा के उजाले की ओर आगे नहीं बड़ पाएं।
सरकार पहले तो पलायन की मुख्य बिंदुओ को चिन्हनीत करें और कर भी लिए हो तो उस पर आने वाली समस्या के सारे छोर को देखते हुए उनका गहनता से अध्ययन कर उन सारी समस्या के समाधान की ओर कदम बढ़ाने के क्रियाकलापो को कर्यव्य परायणता के साथ करे तो निश्चत ही जनजातिय क्षेत्र के लोगों को पलायन के इस दर्द से भरे हुए रोग से छुटकारा मिलेगा।
अंचल में जनजातिय लोगों को कृषक से मजदूर बनाने में मुख्य भूमिका उनके क्षेत्र में जल की समस्या है, उनके सुखे खेत उन्हें मजबूर करते है पलायन पर जाने के लिए और एक बार जब पलायन से पीड़ित व्यक्ति उसके संक्रमण की चपेट में आ जाता है तो उसका पलायन उसके पैरो को जकड़ लेता है लेकिन सरकार की समझदारी और प्रशासन की कर्तव्यनीष्ठा हो तो कृषक से मजदूर बने लोगों को फिर कुशल कृषक बनाया जा सकता है।