बांगरू-बाण* वट पूर्णिमा के पीछे का विज्ञान श्रीपाद अवधूत की कलम से।
सनातन हिंदू संस्कृति में पतिव्रता धर्म की अपार महिमा गई गई है और पतिव्रता धर्म को नारी का सर्वोत्तम आदर्श माना गया है। अहल्या, द्रौपदी, कुंती, तारा, सीता, अनुसूया, सुलक्षणा, वृंदा और सावित्री आदि अनेक स्त्रियां पतिव्रता के रूप में वंदनीय है पूजनीय है। उपरोक्त सारी स्त्रियां अपनी निष्ठा, त्याग, धैर्य और पति के प्रति समर्पण के लिए प्रसिद्ध है। अब वर्तमान समय की अर्थात विगत 6 माह में जो घटनाक्रम घटित हुए है। उन घटनाक्रमों की मुख्य कर्ताधर्ता स्त्रियों की भी चर्चा कर लेते हैं।
‘मुस्कान रस्तोगी’ जिसने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति का खून किया और नीले ड्रम में जिसकी लाश को डालकर घर में ही दबा दिया।निकिता सिंघानिया’ जिसने अपने पति को इतना टॉर्चर किया कि उसे मृत्यु को ही अपनाना पड़ा। अभी कल की बात लीजिए सोनम रघुवंशी जिसने अपने पूर्व प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति राजा रघुवंशी का वध करवा दिया। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि विषय तो वट पूर्णिमा का है और बातें सारी स्त्रियों के संदर्भ में हो रही है और तुलना भी महान पतिव्रता स्त्रियों से वर्तमान समय की सामान्य स्त्रियों से की जा रही है।तो थोड़ा धैर्य रखकर पूरा आलेख पढेंगे तो आपको सब समझ में आ जाएगा। हिंदी भाषा में एक वाक्य प्रयोग आपने अवश्य सुना होगा किसी स्त्री को चरित्रहीन सिद्ध करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।
“बड़ी सती सावित्री बनी घूमती फिरती है। “इंटरनेट पर गंदी और अश्लील कंटेंट प्रोवाइडर साइट का नाम सविता भाभी भी इसी सावित्री का अपभ्रंश करके ही रखा गया है। इन दो उद्धरणों से भारतीय मानस में इस “सावित्री” की क्या इमेज खड़ी की गई है। मुझे अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। सनातन हिंदू विरोधी ताकते किस प्रकार नॅरेटिव खड़ा करती है और भारतीय सनातन मूल्यों का किस प्रकार नाश करती है यह इससे सिद्ध हो जाता है। किसी भी समाज की रीढ़ स्त्री होती है और किसी समाज को नष्ट करना हो तो उस रीढ़ पर ही प्रहार किया जाता है। सनातन हिंदू परंपराओं की रीढ़ में हमारी यही मातृशक्ति रही है और इसीलिए सबसे अधिक आघात इसी नारी शक्ति पर मातृशक्ति पर किया गया। उसे अबला कहा गया उसे अन्य अन्य उदाहरणों से पिछड़ी सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया ताकि वह इसमें उलझी रहे और सनातन हिंदू संस्कृति के मूल्यों से दूर हटे। स्त्री के पहनावे उसके आचार विचार उसके कर्मों को बदल कर रखने से ही भारतीय शाश्वत मूल्यों का विनाश होगा यह उन लोगों को पता था इसीलिए यह सारे हथकंडे प्रयोग में लाए गए।यह तो एक छोटी सी भूमिका थी। आइए मुख्य विषय पर चर्चा करते हैं।
आज वट पूर्णिमा है। इससे वट सावित्री पूर्णिमा भी कहते हैं। उत्तर भारत में वट सावित्री अमावस्या तो दक्षिण भारत में वट सावित्री पूर्णिमा मनाने की परंपरा है। यह त्यौहार अमावस्या या पूर्णिमा को मनाया जाता है यह महत्वपूर्ण नहीं है।* *महत्वपूर्ण यह है कि इस त्यौहार के केंद्र में स्त्री है मातृशक्ति है।* *हमारे पूर्वजों के जैविक ज्ञान से आप आश्चर्यचकित होंगे। वे मानव शरीर के विज्ञान में इतने उन्नत थे कि उन्होंने इस त्योहार को व्रत के रूप में प्रावधान किया। एक बहुत ही आकर्षक कहानी विकसित की गई थी। सत्यवान और सावित्री की कहानी। अधिकांश महिलाएं पति की लंबी उम्र के लिए यह व्रत करेंगी। आप सभी कहानी जानते होंगे यह मानकर हम केवल इस कहानी के व्रत के पीछे के वैज्ञानिक तथ्यों को जानने का प्रयास करेंगे।* *वट पूर्णिमा/अमावस्या या वट सावित्री क्या है? हम इसे क्यों मनाते हैं? इसे समझना बहुत जरूरी है। अन्यथा, हमारी अगली पीढ़ी इसे अंधविश्वास मानकर इसे मनाना बंद कर देगी।* *“सत्यवान-सावित्री” की कहानी बहुत ही प्रसिद्ध है। यह कहानी यमराज के साथ मृत्यु पर उनके ज्ञानपूर्ण वार्तालाप, खोए हुए साम्राज्य और अपने पति की संपत्ति को वापस पाने, अपने पति के जीवन को बचाने और साहसी और बहादुर पुत्रों की प्राप्ति का वरदान पाने के आसपास घूमती है।।* *वट पूर्णिमा या अमावस्या मनाने यानी बरगद के वृक्ष की पूजा करने की शुरुआत समाज में इसलिए की गई है ताकि वे सभी चीजें प्राप्त की जा सकें जो सावित्री ने प्राप्त की थीं।**वट का अर्थ है वट वृक्ष या बरगद का पेड़। ‘वट’ का अर्थ है प्रचंड या बहुत बड़ा। तो वटवृक्ष का अर्थ होगा बहुत बड़ा पेड़। यह व्रत हिंदू पंचांग के ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा/अमावस्या को मनाते हैं। सामान्यतया यह हर साल जून के महीने में आता है।* *वट या बरगद का पेड़ भारत में सबसे अधिक पूजनीय वृक्षों में से एक है।* *संपूर्ण भारत के गांवों में बरगद के पेड़ मिलते हैं। पुराने ज़माने में पंचायत इसी पेड़ के नीचे हुआ करती थी। यह पेड़ भारत का राष्ट्रीय वृक्ष है क्योंकि यह शक्ति और एकता का प्रतीक है। यह वृक्ष या पेड़ पूरे भारत में पाया जाता है, चाहे मौसम, मिट्टी और जलवायु कोई भी हो।* *अक्षयवट* *फिकस बेंघालेंसिस यानी बरगद का पेड़ फैलने वाली जड़ें पैदा करता है। जो हवाई जड़ों के रूप में नीचे की ओर बढ़ती हैं। एक बार जब ये जड़ें जमीन पर पहुंच जाती हैं तो वे लकड़ी के तने में बदल जाती हैं, इसलिए इसे बहुपाद भी कहा जाता है, यानी कई पैरों वाला। यह दीर्घायु का प्रतीक है और संपूर्ण सृष्टि निर्माता ब्रह्मा का प्रतिनिधित्व करता है।**’विष्णु पुराण’ में कहा गया है। ‘जगत वटे तं पृथुमं शयानं बालं मुकुंदम मनसा स्मरामि’। अर्थात प्रलय काल में जब संपूर्ण पृथ्वी जल मग्न हो गई थी तब जगत पालक श्री हरि अपने बालमुकुंद रूप में उस अथाह जल राशि में वटवृक्ष के एक पत्ते पर निश्चिंत शयन कर रहे थे। पुराणों के अनुसार, प्रलय के समय यह एकमात्र ऐसा पेड़ है। जो धरती पर जीवित रहता है, इसलिए इसे ‘अक्षयवट’ भी कहा जाता है। यही कारण है कि लंबे समय तक हमारे वंश को बनाए रखने के लिए इस पेड़ की पूजा की जाती है।* *’वामनपुराण’ में वनस्पतियों की व्युत्पत्ति को लेकर एक कथा भी आती है। आश्विन मास में विष्णु की नाभि से जब कमल प्रकट हुआ तब अन्य देवों से भी विभिन्न वृक्ष उत्पन्न हुए। उसी समय यक्षों के राजा ‘मणिभद्र’ से वट का वृक्ष उत्पन्न हुआ था। यक्ष से निकट संबंध के कारण ही वटवृक्ष को ‘यक्षवास’, ‘यक्षतरु’, ‘यक्षवारूक’ आदि नामों से भी पुकारा जाता है।**’रामायण’ में ‘सुभद्रवट’ नाम से वट वृक्ष का वर्णन मिलता है जिसकी डाली गरुड़ ने तोड़ दी थी। ‘वाल्मीकि रामायण’ में इसे ‘श्यामन्यग्रोध’ कहा गया है। यमुना के तट पर वह वट अत्यंत विशाल था। उसकी छाया इतनी ठंडी थी कि उसे ‘श्यामन्योग्राध’ नाम दिया गया। श्याम शब्द कदाचित वृक्ष की विशाल छाया के नीचे के घने अथाह अंधकार की ओर संकेत करता है और गहरे रंग की पत्रावलि की ओर।*
*शिव और यमराज*
मूर्ति विज्ञान में, विनाश के देवता शिव को दक्षिणामूर्ति के रूप में बरगद के वृक्ष के नीचे बैठे हुए दर्शाया गया है, जो दक्षिण दिशा की ओर मुख किए हुए हैं। जो मृत्यु और भय के देवता यम [दक्षिणायै दिशा यमाय नमः – (ऋग्वेद)] की दिशा है।* *संपूर्ण भारत में बरगद के वृक्ष की छाया के नीचे शिव के मंदिर वाले कई श्मशान देख सकते हैं। ऐसा कहा जाता है कि विनाश के देवता शिव हमें यमराज – मृत्यु के देवता से मुक्त करते हैं। कहानी में सावित्री भी इस बरगद के वृक्ष की छाया में बैठी थी।
आम तौर पर किसी भी पेड़ की पत्ती प्रति घंटे 5 मि.ली. ऑक्सीजन पैदा करती है। जो लगभग 12 घंटे तक चलती है। जबकि तुलसी, नीम और बरगद के पेड़ों की पत्तियों की ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता लंबे समय तक यानी लगभग 20 घंटे तक होती है।* *’
संस्कृत भाषा’ में बरगद के पेड़ को न्यग्रोध वृक्ष (न्यक् +रोध) कहा जाता है, जिसका अर्थ है स्राव को रोकने वाला वृक्ष। विज्ञान ने भी पाया है कि बरगद की छाल और पत्ते स्राव और रक्तस्राव को रोकने में उपयोगी हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार, भावनाएँ मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम में होने वाले स्राव का उत्पाद हैं। इस वृक्ष का फल त्वचा और श्लेष्म झिल्ली पर सुखदायक प्रभाव डालता है, सूजन और दर्द को कम करता है, और एक हल्के रेचक के रूप में कार्य करता है। यह पौष्टिक भी है। इसके अतिरिक्त लेटेक्स दस्त, पेचिश, गठिया और कटिवात के उपचार में उपयोगी है।* *”वटमुले तपोवस:” – (ऋषि पाराशर), जिसका अर्थ है कि जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उसे बरगद के पेड़ के नीचे रहना चाहिए। इसीलिए गुरुकुल में अध्ययन करने वाले छात्रों को ‘वटु’ या ‘बटु’ कहा जाता है।* *अनेक संत और तपस्वी हैं जिन्होंने इस पेड़ के नीचे तप, साधना और समाधि प्राप्त की है।
भगवान गौतम बुद्ध और जैन तीर्थंकर ऋषभदेव ने बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था।
यमराज और सावित्री के बीच मृत्यु और अमरता के रहस्यों पर चर्चा भी वट वृक्ष के नीचे ही हुई थी। श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच ज्ञान (भगवद्गीता) पर बातचीत भी कुरुक्षेत्र के ज्योतिसर में वट वृक्ष के पास हुई थी।
*महिला और बरगद का वृक्ष* –
बरगद के वृक्ष की कोमल जड़ें महिला बांझपन के उपचार में लाभकारी हैं। बरगद और अंजीर के वृक्ष की छाल के काढ़े से जननांग पथ की नियमित धुलाई करने से प्रदर रोग में लाभ होता है। गुनगुने काढ़े से धुलाई करने से योनि मार्ग के ऊतक स्वस्थ रहते हैं।
सात जन्मों तक एक ही पति पाने की कामना और 100 वर्ष तक जीवित रहने की कामना के पीछे का निहितार्थ
हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका पुनर्जीवित होती है अर्थात पुरानी कोशिकाएं मर जाती हैं और उनके स्थान पर नई कोशिकाएं जन्म लेती हैं। शरीर में ऐसा सिस्टम है कि वह मरी हुई कोशिकाओं को अपनी ऊर्जा प्राप्ति के सोर्स के रूप में उपयोग कर लेता है। जब कुछ कोशिकाएं मरने के बाद विघटित नहीं होती तो वे कोशिकाएं ही कैंसर कोशिकाएं या कैंसर सेल कहलाती हैं। जीवन में विनाश का क्या महत्व है सृजन के लिए विनाश किस तरह आवश्यक है यह हमें शरीर के कोशिकीय संरचना के विज्ञान से पता चलता है।* *लगभग 7 वर्ष के अंतराल में शरीर की समस्त कोशिकाएं मर जाती हैं और उनके स्थान पर नवीन कोशिकाएं आ जाती है। हमारी हड्डियां हर 10 वर्ष के बाद खुद को नवीनीकृत करती हैं और मांसपेशियां 12 वर्ष लेती हैं। यह अब वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक 12 वर्ष के अंतराल के बाद हमें एक नया शरीर मिलता है। इसे ही हमारे शरीर का नया जन्म कहा जाता हैं। यदि आप 12 वर्षों को 7 जन्मों से गुणा करते हैं तो यह 84 वर्ष आता है। प्राचीन समय में लड़कियों का विवाह 13/14 वर्ष की आयु में और लड़कों का 16/17 वर्ष की आयु में हो जाता था। इसलिए वट सावित्री व्रत करने वाली नवविवाहिता लड़की कहती थी कि उसे सात जन्मों तक एक ही पति मिलेगा यानी उसका पति 100 वर्ष तक जीवित रहेगा।
बरगद के वृक्ष के आसपास धागा क्यों बांधते हैं?
कपास से बना धागा जब महिलाएं बरगद के वृक्ष के तने के आसपास बांधती हैं तो वह निश्चित रूप से बरगद के वृक्ष को भी स्पर्श करती हैं और यह प्रक्रिया सकारात्मक ऊर्जा को महिला के शरीर तक पहुँचाने का पुल या माध्यम बन जाती है, इस कारण वह पेड़ से जुड़ी रहेगी और उसे अधिकतम ऊर्जा मिलेगी। साथ ही बरगद के पेड़ पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। जब बरगद के पेड़ पर कुमकुम लगाते हैं, तो वह हमारे लिए पवित्र हो जाता है। उसी तरह पवित्र धागा पेड़ को लकड़हारों से कटने से बचाता है। वे पूजे जाने वाले पेड़ को काटना पाप मानते थे। इस तरह से बड़े बरगद के पेड़ों की प्राचीन काल से ही रक्षा की जाती रही है और यही सनातन हिंदू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है जियो और जीने दो फिर वह वृक्ष ही क्यों ना हो।
उपरोक्त विवेचन को पढ़ने पर यह समझ में आता है कि सत्यवान सावित्री कहानी के माध्यम से वट या बरगद के पेड़ के विभिन्न सकारात्मक प्रभाव व औषधीय गुण मनुष्य जाति के लिए कितने आवश्यक हैं। इन्हें विज्ञान के चश्मे से परखने का प्रयास किया जाना चाहिए।
वट पूर्णिमा या अमावस्या व्रत एक ऐसी व्यवस्था है जो आने वाली पीढ़ियों को बरगद के पेड़ से जुड़े औषधीय, वैज्ञानिक और दार्शनिक तथ्यों से अवगत कराएगी और इसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए प्रेरित करेगी। साथ जीव विज्ञान का गहन ज्ञान क्या होता है..?? वह भी बिना किसी डिग्री, प्रयोगशाला, उपकरण और प्रयोगों के जानने में सहायक सिद्ध होगी।* *हम अपनी परंपराओं मान्यताओं रूढ़ियों के पीछे के विज्ञान प्रणित तर्क को समझे बिना उसका मज़ाक बनाते हैं और यह जताना चाहते हैं कि हमारे पूर्वज मूर्ख थे लेकिन जब हम अपनी परंपराओं का वैज्ञानिक परीक्षण करते हैं तो हमें पता चलता है कि हम ही बड़े मूर्ख हैं जो अपनी परंपराओं के पीछे के विज्ञान को समझने में विफल रहे हैं।
* *शुभम् भवतु..!!!*
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त