कश्मीर, कश्मीरियत और सच से भागते लोग।
डॉ आशीष जोशी
किसी भी समस्या को हल करने की पहली शर्त है — उसकी सच्चाई को आंखों में आंखें डालकर देखना।लेकिन अफसोस, हमारे देश में बहुत से लोग समस्या को नहीं, उससे पैदा होने वाली “छवि” को ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं।पहलगाम हमले के बाद भी यही हुआ।हमले पर चर्चा कम, इस पर चिंता ज़्यादा — कि इससे किसी पंथ या समुदाय की “छवि” पर आंच न आ जाए!अगर आपकी सोच का आधार यही है, तो बेहतर है कि आप खोई हुई चप्पल खोजें — कम से कम उसमें देश का नुकसान तो नहीं होगा।सच यह है कि —कश्मीर में टूरिस्टों की मदद करना कोई पराक्रम नहीं है, यह तो इंसान होने की न्यूनतम शर्त है।इस पर फूल बरसाना, अखबारों में फोटो छपवाना, सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल करना — यह क्या साबित करना चाहते हैं हम? कि मूल इंसानियत भी अब प्रचार का विषय बन गई है?अगर आज कश्मीरी मुसलमान अपील कर रहे हैं कि “डरिए मत, आइए,” तो एक सवाल सीधा और निर्मम तरीके से पूछिए —जब कश्मीरी पंडितों को रातोंरात घर छोड़ने पड़े थे, तब कौनसा हाथ आगे बढ़ा था?तब कौनसे पोस्टर लगे थे — “आइए, हम आपकी रक्षा करेंगे”?36 साल से कश्मीरी पंडित बेघर हैं। किसी कश्मीरी मौलवी ने, किसी स्थानीय संगठन ने उनके लिए सार्वजनिक क्षमा याचना की?किसी ने कहा कि “आप हमारे भाई हैं, लौट आइए, हम आपकी जान की गारंटी लेते हैं”?नहीं।क्योंकि सच्चाई यह है —कश्मीरियत का झंडा सिर्फ पर्यटकों के नोटों के लिए फहराया जाता है, नागरिकों के अधिकारों के लिए नहीं।यही वजह है कि जब मजदूरों को गोली मारी जाती है, शिक्षकों को बेरहमी से मार दिया जाता है, तब कश्मीर में कोई कैंडल मार्च नहीं निकलता।कोई रात को इमामबाड़ों से अनाउंसमेंट नहीं होती कि “यह हरकत इस्लाम के खिलाफ है, हम इसकी निंदा करते हैं।”सच यह है — कश्मीर में बाहरी मजदूर, हिंदू शिक्षक, गैर-मुसलमान नागरिक — सब किरायेदार हैं, ग्राहक हैं, लेकिन कभी बराबरी के अधिकारों के साथ “कश्मीरी” नहीं माने जाते।अगर यह बात आपको चुभती है, तो चुभने दीजिए।सच चुभता ही है।अब मूल जड़ पर आइए — पंथ और सोचहर सभ्यता में पंथ ने एक समय के बाद जड़ता फैलाई।लेकिन सवाल यह नहीं है कि कौनसा पंथ जड़ हुआ, सवाल यह है कि किसने अपनी जड़ता से लड़ने की हिम्मत दिखाई?यूरोप में चर्च ने गैलीलियो को काफिर घोषित किया, लेकिन यूरोप ने आत्ममंथन किया — नतीजा? पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रांति, वैज्ञानिक चमत्कार।हिंदू समाज में भी आत्मालोचना हुई। दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखकर कर्मकांड और पाखंड के खिलाफ बिगुल फूंका।इस्लामिक समाज ने भी एक दौर में दुनिया को विज्ञान, गणित, दर्शन दिए।लेकिन फिर वह ठहर गया।प्रिंटिंग प्रेस से लेकर आधुनिक शिक्षा तक, सब पर प्रतिबंध लगाया गया।परिणाम? अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सोमालिया, सीरिया… — एक के बाद एक तबाही।आज कश्मीर भी उसी फेहरिस्त का हिस्सा बन चुका है।जहाँ सवाल पूछने वाले को काफिर कहा जाता हो, जहाँ नई सोच गुनाह मानी जाती हो, वहाँ गुलामी और बर्बादी के अलावा और कुछ नहीं पनप सकता।पाकिस्तान इसका सबसे जीवंत उदाहरण है।जिसने चीन जैसे कम्युनिस्ट देश से दोस्ती तो कर ली, लेकिन अपने ही देश में कम्युनिस्ट विचारों को कुचलता है।जिसे अपनी असफलताओं का दोष अमेरिका और भारत पर डालने में महारत है, लेकिन अपने अंदर झांकने की हिम्मत नहीं है।कश्मीर अगर पाकिस्तान के रास्ते पर चला, तो उसकी मंज़िल भी वही होगी — अंधकार, गरीबी और विनाश।इसलिए आज भी मौका है।आज भी कश्मीर के युवाओं के सामने विकल्प है —या तो सच को अपनाइए, सवाल पूछने की आदत डालिए, नए विचारों को जगह दीजिए —या फिर उसी दलदल में धंसते जाइए जहाँ आज पाकिस्तान तड़प रहा है।और भारत के शेष समाज के लिए एक सीख:ध्यान रखिए, सहिष्णुता और मूर्खता में फर्क होता है।सच को झुठलाना सहिष्णुता नहीं, आत्महत्या है।अगर आप सच बोलने से डरते हैं, तो आप अपनी भावी पीढ़ियों के गुनहगार बनेंगे। अब तय आपको करना है —सच के साथ रहना है या सुविधा के झूठ के साथ मरना है।