2025 का हॅंसमुख चिंतन:- बंटना और कटना बंद हो ! अच्छाइयां हो शुरू !!

आज 1 जनवरी 2025 का दिन है। कल 31 दिसंबर 2024 का आखिरी दिन था। इसी तरह जन्म से लेकर मृत्यु तक 31 दिसंबर वर्ष का अंतिम दिन होगा और 1 जनवरी वर्ष का प्रथम दिन। उम्र तो घटती जाती है लेकिन हम बिना सत्य को जाने बिना उत्सुकता से कहते हैं ‘नववर्ष मंगलमय हो’।

वर्ष का अंतिम दिन और पहला दिन विचार की अपेक्षा सब दिन नव है, निर्विकार विचार में अधिक विश्वास करना चाहिए। क्योंकि जीवन के सभी दिन अद्भुत होते हैं और जब शांतचित्त होकर विचार करते हैं तो पते हैं कि प्रतिदिन सूरज एक नई आशा और उमंग का देशातीत और कालातीत होता है । जीवन का प्रतिदिन कल और काल की सीमा में बंद कर नहीं रहना चाहिए। यह नया वर्ष, वह पुराना वर्ष जैसी सोच से मुक्ति पाने का यत्न और जतन करने की आवश्यकता है। इन विकारों से मुक्त वही सज्जन रह सकता है जिसमें चिरकालिक चिंतन करने की क्षमता होती है। शेष जीवन में असंख्य घटित होने वाली घटनाओं को पार करने वाला कभी भी नव वर्ष और पुराने वर्ष आग्रही नहीं हो सकता। वर्ष बदले यह एक सामान्य चिंतन है। लेकिन इसमें जो सबसे बड़ा चिंतन जुड़ा है, वह है हमारे भ्रम पैदा करने वाला सोच भी बदले और दिशा भी !!

केवल 31 दिसंबर की रात्रि को 12 बजे बाद नए वर्ष के आने का जश्न मनाना और पुराने वर्ष जाने का संताप करना हमारे एकांकी चिंतन को दर्शाता है। जबकि हमें हमारे चिंतन में एकांकी सत्य में विश्वास करने की बजाय अनेक सत्य का समन्वय करके जीवन की सच्चाई का पूरा चित्र खींचने की जरूरत है । भारतीय सनातन जीवन पद्धति और परंपरा में दिन का आना और रात्रि का जाना जीवन चक्र का अनिवार्य हिस्सा माना गया है। भारतीय जीवन पद्धति में “जब तक शरीर में है धड़कन, जीवनतत्त्व के प्रत्येक क्षण का आनंद” लेने का दर्शन दिया है। इसका भान हो, इसके लिए हमें अपने चक्षु को खोलने की जरूरत है। धर्म वेदों , सभ्यता, संस्कृति , रीति- रिवाज और हमारे अपने परिवेश को जानने और समझने की जरूरत है। ऐसा करने से हमें हमारे वंशजों के प्रताप का स्मरण हो जाता है। पूर्वजों के संस्कारों का स्मरण करना और उनका पालन करना ही पितृ ऋण से मुक्ति पाने का प्रकल्प है !!

असल में भारतवर्ष के निवासी 800 साल से भी अधिक समय तक आयातित विचारधारा का गुलाम रहने के कारण ‘मायावी विचार’ में जीवन जीने के आदी हो गये। यह मायावी भ्रम आजादी के बाद भी नहीं टूटा, क्योंकि ज्ञान वितरण की परंपरा इन्हीं विदेशी आक्रांताओं की द्वारा स्थापित शैली में देने की प्रथा चली आ रही है। नई पीढ़ी अंग्रेजी राज्य का गुणगान करती है। उसमें उसका कोई कसूर नहीं है, क्योंकि उन्हें इतिहास के माध्यम से यही बताया गया कि अंग्रेज हमारे लिए अच्छे थे। यही कारण है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी वर्तमान भारतीय समाज अपने पूर्वजों की परंपरा, संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज, शासन करने की पद्धति, खान-पान की पद्धति जैसी खुबसूरती को नहीं समझ पाए हैं और वर्गों , जातियों में बटे हुए हैं !!

एक नारा “बटोगे तो कटोगे” काफी चर्चित रहा है। इस नारे को मोदी जी ने अपने हिसाब से परिवर्तित करके कहा- “एक रहोगे तो सेफ रहोगे”। बचपन से हम सबने सुना और पढ़ा है कि एकता में ताकत होती है। चाहे सामाजिक एकता हो, धार्मिक एकता हो या फिर सांस्कृतिक एकता । एकता का कोई सानी नहीं। घर का उदाहरण ही ले लीजिए सबसे अच्छा रहेगा । जब तक भाई-भाई या भाई- बहन में एकता रहती है, तब तक घर स्वर्ग बना रहता है। जिस दिन मनभेद और मतभेद हो जाते हैं, उस दिन घर ताश के पत्तों की तरह बिखर जाता है। विस्तार रूप में यही बात समाज पर भी लागू होती है। वतन पर लागू होती है और विचारधारा पर भी !!

हर नए साल पर जश्न मनाने के संदर्भ में सोच- विचार का विषय है कि,आक्रमणकारियों, विशेष कर मुगलों और अंग्रेजों ने भारत वासियों को क्या दिया? हॅंसमुख जैसे असंख्य चिंतकों का ऐसा मानना है कि विदेशी शासकों ने सबसे ज्यादा भारतीय लोगों के बीच में ‘भ्रम’ पैदा किया । मायावी विचार रखे गए । शिक्षा के माध्यम से पाश्चात्य संस्कृति- सभ्यता और परंपरा श्रेष्ठ निरूपित करने की पुरज़ोर कुचेष्टा की गई। भारतीय संस्कृति और परंपरा का टुच्चे पन भाव से तुच्छ आंकलन किया गया और हमारे पूर्वजों की संस्कृति और सभ्यता को छुआ-छूत, भेद-भावों वाली बता कर को उन्हें अपमानित किया गया। यह कारण है कि हम 3600 जाति और उपजाति में बटकर कट गए ! ममता, समता, सौहार्दता , भाईचारा, सहिष्णुता जैसी कालजेयी एवं पवित्र भाव एवं भावना से एक दूसरे से इतने दूर चले गए कि हम अपनों से ही घृणा करने लग गए और आज भी करते हैं !!

प्रश्न है कि हमें मिला क्या और मिल क्या रहा है? उत्तर हम सबके सामने हैं। एक दूसरे से घृणा करने पर किसी को न माया मिली, न राम।और ये दोनों न मिलने वाले हैं ? यह सत्य है कि हम एक जाति, एक भाषा, एक रीति -रिवाज, एक धर्म धारण करके नहीं रह सकते, क्योंकि भारत की भौगोलिक और पर्यावरणिक स्थितियों के चलते सदियों से ऐसा होता और चला आ रहा है । लेकिन अनेकता में एकता भी भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। इसको तो तहदिल से आगे बढ़ाएं !!

सैकड़ो वर्षों से हमारे ऋषियों, साधुओं, संतों, विचारकों , समाज सुधारकों, लेखकों और चिंतकों का प्रयत्न रहा है कि भारतीय समाज अच्छा बने। व्यक्ति अच्छा बने। समाज में मूल्य हो । व्यक्ति के जीवन में मूल्य हो । मानवता का भाव हो। समरसता का भाव हो। जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए धार्मिक – आध्यात्मिक की दृष्टि हो। हॅंसमुख चिंतन रह रह कर यही कहता है कि – घृणा , भेद-भाव, उंच -नीच जैसे अमानवीय कृत्य और भाव जीवन का केंद्रीय तत्व नहीं होना चाहिए। बुराई को पनपना के अवसरों को शिथिल करने का प्रयास करना चाहिए। अच्छाइयां दौड़ लगाय और तोड़ती रहे । इस वर्ष की विजेता बने। मानवतावादी दृष्टिकोण आत्मा और चेतना का केंद्रीय तत्व बने और बना रहे । भारत माता की इच्छा के अनुसार अच्छे भारतीय समाज बनाने का सपना साकार हो।

ऐसी आशा भरी निगाहें हैं हॅंसमुख की वर्ष 2025 में !!

“डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’ लेखक मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निर्माण एवं देखरेख समिति के स्थाई सदस्य हैं।

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