पलायन से अंचल के बच्चों में कुपोषण का बढ़ता ग्राफ…

रिंकेश बैरागी,

जनजातिय लोगों के लिए पलायन एक ऐसा अभिशाप है, जिसमें व्यक्ति अपनी आजीविका को चला तो रहा है परंतु सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और शारीरिक विकास में पिछड़ता जा रहा है, और शासन के साथ प्रशासन अपनी जिम्मेदारी के झोले में छेद किए हुए बगल में देखते हुए, शहरी एवं ग्रामीण विकास की गंभीर बात करके पीठ थपथपा रहें हैं। पैसा कमाने के लिए ग्रामीण साथ अपने कुछ राशन लेकर जाते है और अपने कर्ज को खत्म करने के उद्देश्य से भी, किंतु वो गोल चक्र पुरा ही नहीं कर पाते और समय समाप्त हो जाता है। इस दिशा में वो अपने बच्चों के भविष्य की बलि चढ़ा रहें हैं, जिसका उनको आभाष भी नहीं है और जिसके फल से वे अनभिज्ञ भी है। मजबूरी में घर त्यागने वाले मजदूर अपने बच्चों को शिक्षा से वंचित तो कर ही रहें हैं साथ ही जाने-अंजाने उनके पोषण के साथ भी खिलवाड़ कर उनको कुपोषित बना रहे हैं। परिवार के जीवन व्यापन की विवशता की गंभीरता इतनी होती है कि वे अपने दुधमुंहे बच्चें को साथ ले जाते हैं और मजदूरी के भंवर में बच्चा कुपोषण के घेरे में आ जाता है।
पलायन के पथ पर बढ़ते इन लोगों की दुर्दशा की जिम्मेदार सरकार और उनकी बनाई गई नीतियों पर प्रशासन की बेरुखी के साथ बेढंग चाल का चलन है। योजनाओं से वंचित किसान अपनी सुखी भूमि को देखते-देखते आँखों को नम कर लेता है, और आसमान की ओर देखकर दूर प्रदेश में अपने बच्चों के साथ पेट की अगन को शांत करने के लिए चल देता है, लेकिन उसी के साथ उसके छोटे-छोटे बच्चें दुख, दर्द के साथ बेवजह की यातनाएं सहते-सहते कुपोषण का शिकार होकर वो शारीरिक दुर्बलता के वश में आ जाते हैं।
ग्राउंड रिपोर्ट देखे तो शासन प्रशासन के सारे दावे यहां निष्क्रिय दिखाई देते है, क्योंकि पलायन की वजह से जनजातिय समाज का समाजिक विकास रुक रहा है उसी के साथ उनका आर्थिक विकास भी गर्त में जा रहा है, फिर जागरुकता और शेक्षणिकता के स्तर में भी इसी पलायन के कारण से नीचे गिरते जा रहा है, और विवशता के वश में होते पलायन से वे अपने और बच्चों के शरीर के साथ खिलवाड़ कर कुपोषण के गंदे कुएं में झौंक रहें हैं।
आंकड़ो के अनुमान से करिब एक लाख बच्चें अपने माता-पिता के साथ पलायन के शिकार होते हैं और उनमें से लगभग 1500 से अधिक बच्चें अति कुपोषण की चपेट में आते हैं और तकरिबन 9 हजार बच्चें कम वजनी पाए जाते है। इस तरह पलायन किसी डायन की भांती समाज के बच्चों को क्षति पहुंचाती जा रही है।
अगर अपने ही अंचल में सुविधा के साथ रोजगार मिलने लग जाए तो ये लोग यहां रहकर गुजर-बसर कर सकेगे, साथ ही इसके उन बच्चों का भविष्य भी नहीं बिगड़ेगा जिनको पलायन का दंश झेलना पड़ रहा है। शासन के शक्तिहीन दावो में बुनियादी प्राथमिकता भी यदि आ जाए तो कुपोषण से पीड़ित परिवार रोग से प्रताड़ित नहीं होगा। जब नेता, विधायक या सांसद, विधानसभा या संसद में गला फाड़कर जनजाति क्षेत्र की निर्धनता से, बेराजगारी से, और अन्य असुविधाओ से अवगत करवा सकता है तो वह सरकार से उन योजनाओं का भंडार भी खुलवाता सकता है, जिनसे जनजाति समाज का व्यक्ति अपने खेत में अपने पानी के साथ खेती, किसानी कर सकेगा।
पलायन पर जाते लोगों के बच्चों के बिगड़ते भविष्य को संवारने के लिए शासन प्रशासन को जनजाति अंचल में पहली प्राथमिक सुविधा में जल की व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा। भ्रष्ट्राचार करने वाले उन नेताओं को पद मुक्त करना होगा जो अधिकारियों पर दबाव बनाकर तालाव निर्माण, या नहर निर्माण, या फिर बांध निर्माण में झोलझाल करने की छुट दे देते है। कुपोषित होते उन बच्चों की शरीर की सृदृड़ता के लिए लोगों के खेतों तक पानी को पहुंचना अत्यधिक आवश्यक है तभी तो वह सुचारु रुप से खेती कर पाएगा औऱ अपने बच्चों को स्थानीय स्कूल में शिक्षा के साथ पोषण भी व्यवस्थित कर पाएगा। जिले के हर गांव में कहीं नाला, तालाब, पुरानी बावड़ी या नदी है लेकिन उनमें जल संग्रहण की सुचारु व्यवस्था नहीं है, बरसात के बाद ही जिले की नदियों में पानी बह जाता है औऱ वे सुख जाती है, ऐसे ही तालाबो को पानी भी धीरे-धीरे कम हो जाता है। शासन प्रशासन इन जल स्त्रोतों में पानी के यथावत होने की व्यस्था भर भी कर दे तो पलायन जाते मजदूरों में बहुत कमी होगी और लोग कृषक ही बने रहेगे…

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