शारदीय नवरात्र : वैदिक, पौराणिक, ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक सन्दर्भ में विवेचन
*बांगरू-बाण* श्रीपाद अवधूत की कलम से
शारदीय नवरात्र सनातन हिन्दू संस्कृति में सबसे पवित्र पर्व के रूप में पूजित एवं प्रचलित है। यह स्त्री के दिव्यत्व की आराधना का पर्व है। स्त्री स्वरूपा परांबा जिसे आदिशक्ति भी कहा गया है। इसके ऊर्जा, शक्ति एवं ज्ञान के विभिन्न स्वरूपों की आराधना है। यह पर्व स्त्रीत्व के शक्तिशाली और सुरक्षात्मक स्वरूप का प्रगटीकरण करके सशक्तिकरण की अवधारणा को मूर्त रूप देता है। यह आंतरिक शक्ति को जगाने और जीवन की चुनौतियों का दृढ़ संकल्प और शालीनता से सामना करने की प्रेरणा देता है। यह आध्यात्म संस्कृति एवं परंपरा का। भक्ति, शक्ति एवं ज्ञान का अनूठा संगम है।
सर्वप्रथम ‘नवरात्र’ शब्द के अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं…
‘पाणिनि व्याकरण’ के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण है। 9 रात्रियों का समाहार या समूह होने के कारण द्वंद समास है। यह शब्द पुलिंग रूप में ही प्रयुक्त होता है। नवरात्र शब्द 9 अहोरात्रों [विशेष रात्रों] का बोध कराता है। इस समय आदिशक्ति के 9 रूपों की उपासना आराधना की जाती है। यहां ‘रात्रि’ शब्द ‘सिद्धि’ का प्रतीक है। प्राचीन ऋषि मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है इसलिए दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सव रात में ही मनाने की परंपरा है।
‘भगवान श्रीकृष्ण’ जो ‘योगेश्वर’ हैं, पूर्ण अवतार हैं। उनका जन्म भी रात्रि में ही हुआ है। दिन में अगर आवाज़ दी जाए तो वह दूर तक नहीं जाती किन्तु वही आवाज़ रात्रि में दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है। इसके पीछे वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि दिन के कोलाहल एवं सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोकती है। आप में से अधिकांश लोगों ने अपने बचपन में रेडियो सुना होगा जो इसका उदाहरण है। कम फ्रीक्वेंसी वाले रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना कठिन होता था लेकिन रात्रि में वह स्टेशन आसानी से सुना जाता था। सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं ठीक उसी प्रकार मंत्र, जाप या आराधना से उत्पन्न विचार तरंगें भी दिन के समय रुकावट डालती हैं इसलिए ऋषि मुनियों ने दिन के अपेक्षा रात्रि को अधिक महत्व दिया है। रात्रि में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजने से उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि और शुभ संकल्प का प्रभाव शीघ्रता से होता है।
नवरात्र’ शब्द के बाद “दुर्गा” शब्द का भी अर्थ समझते हैं…. “दुर्गा” शब्द का भाषावैज्ञानिक (Etymological + Philological) आधार पर विश्लेषण करते हैं। शब्द-रचना (Morphology / Etymology) “दुर्गा” = “दुर्ग” + “आ” (स्त्रीलिंग प्रत्यय)। “दुर्ग” शब्द संस्कृत धातु √गृह् (ग्रहण करना, रोकना, सुरक्षित रखना) से बना है। “दुर्” (उपसर्ग) = कठिन, दुर्गम, जो पार करना कठिन हो। “ग” (धातु √गम् – जाना) = जहाँ पहुँचना कठिन हो।➡ “दुर्ग” = गढ़, किला, सुरक्षित स्थान, जिसे जीतना या पार करना कठिन हो। फिर स्त्रीलिंग बनाने के लिए “आ” प्रत्यय लगने पर बना — दुर्गा। निरुक्त (Vedic Exegetical Meaning) यास्काचार्य के निरुक्त में “दुर्ग” का अर्थ है अपारगम्य स्थान, अत्यन्त रक्षा करनेवाला किला। इस आधार पर “दुर्गा” का अर्थ हुआ जो स्वयं दुर्ग समान अभेद्य शक्ति है। जो साधकों को जीवन के कष्टों रूपी दुर्गम मार्ग से पार कराती है।
व्युत्पत्ति अनुसार अर्थ:-1. दुर्गं तारयति इति दुर्गा* →*जो जीव को संसार के दुर्ग (कठिनाइयों) से पार ले जाती है। दुर्गेषु गच्छति वा दुर्गा →जो हर कठिन परिस्थिति में सहायक होती है। दुर्गा = अपराजिता शक्ति → जिसे जीतना असंभव है।
दार्शनिक व्याख्या:-“दुर्गा” देवी केवल किले या रक्षा की अधिष्ठात्री नहीं, बल्कि मानव जीवन की सभी दुर्गम बाधाओं (अविद्या, अहंकार, असुरभाव, पाप) से पार उतारने वाली शक्ति हैं। पुराणों में भी “दुर्गा” को संसार रूपी दुर्ग से पार कराने वाली माता कहा गया है। ‘नवरात्र’ का वैदिक आधार:- ‘नवरात्र’ का उल्लेख ‘वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों’ में ‘ऋतु परिवर्तन पर्व’ के रूप में मिलता है। देवीसूक्त (ऋग्वेद 10.125) में देवी को समस्त सृष्टि की शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। ऋग्वेद में वर्णित ‘अंबिका’, ‘आदि शक्ति’ और ‘दुर्गा’ का स्वरूप बाद के काल में नवरात्र उपासना से जुड़ गया।
ऋग्वेद – दुर्गा सूक्त (4.1.9) “त्वं अग्ने दुर्मति परिषदि दुर्यात्यति। दुर्गेऽपा नः सुगं कर॥” अर्थात:- ‘अग्नि’ को ‘दुर्गा’ कहा गया है, जो हमें कठिनाइयों से पार कराती है। यही “दुर्गा-पूजन” की वैदिक जड़ है।
यजुर्वेद – तैत्तिरीय आरण्यक (10.1.7) “जाता वेदसे सुनवाम सोममरातीयतो निदहाति वेदः। स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नवेव सिन्धुं दुरिताऽत्यग्निः॥” यह वही मंत्र है जो आज भी दुर्गा सप्तशती/चंडी पाठ में “दुर्गा सूक्त” के रूप में लिया जाता है।
अथर्ववेद – देवी सूक्त (7.6.1-4) “अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणोभा बिभर्मीहं इन्द्राग्नी अहं अश्विनोभा॥” इसमें देवी कहती हैं – “मैं ही समस्त देवताओं में व्याप्त शक्ति हूँ”। यही बाद में “या देवी सर्वभूतेषु…” की उत्पत्ति का बीज है।
सामवेद – ऋतुयज्ञ संदर्भ सामवेद में अलग-अलग ऋतुओं में देवताओं की उपासना का विधान है।> “ऋतूनाम त्रय्याऽऽवृता यज्ञो भवति।” (सामवेद आरण्यक) यहाँ शरद ऋतु का उल्लेख आता है, जिसमें यज्ञ विशेष फलदायक माना गया। इसी आधार पर शरद ऋतु के आरंभ में नवरात्र-पूजन प्रचलित हुआ। शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है, जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर गति करने के मध्य संक्रांति के समीप होता है। इस काल को ऋतु परिवर्तन का संवेदनशील काल माना गया है, इसलिए वैदिक ऋषियों ने इसे उपवास, तप, और देवी उपासना से जोड़ा।
पौराणिक संदर्भ ‘मार्कंडेय पुराण’ में वर्णित देवी महात्म्य (दुर्गा सप्तशती) शारदीय नवरात्र का प्रमुख आधार है। इसमें महिषासुर, मधु-कैटभ और शुंभ-निशुंभ जैसे दानवों का वध देवी ने इसी काल में किया था।
‘कूर्म पुराण’:- इसमें कहा गया है कि शरद ऋतु में नवरात्र-व्रत करने से मनुष्य की सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं और दुर्गा की कृपा से मुक्ति प्राप्त होती है। उद्धरण:-> “अश्विनस्य सिते पक्षे प्रतिपद्यां यथाविधि। नवरात्रं समारभ्य सर्वकामानवाप्नुयात्॥” इसका स्पष्ट अर्थ है कि अश्विन शुक्ल पक्ष में नवरात्र का विशेष विधान है।
‘पद्म पुराण’:- पद्मपुराण में नवरात्र-पूजन को तीन भागों में बताया गया है :–
1. वासन्तिक नवरात्र (चैत्र मास)
2. गुप्त नवरात्र (आषाढ़ मास)
3. शारदीय नवरात्र (अश्विन मास) इनमें ‘शारदीय नवरात्र’ को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।उद्धरण:- “नवरात्रं तु यत्प्रोक्थं शारदं परमाद्भुतम्। तत्र या पूजिता देवी सा ददाति वरं शुभम्॥” ‘कालिका पुराण’ तथा ‘देवी भागवत पुराण’ में भी यह वर्णन है कि शरद ऋतु में देवी दुर्गा की उपासना करने से समस्त विघ्न नष्ट होते हैं और आयु, आरोग्य, धन-धान्य की वृद्धि होती है।
‘रामायण’ के अनुसार:- ‘भगवान श्रीराम’ ने ‘रावण’ पर विजय प्राप्त करने से पहले शारदीय नवरात्रि में माँ दुर्गा की उपासना की थी। उन्होंने 108 नीले कमल अर्पित करने का संकल्प लिया था, लेकिन एक कमल की कमी होने पर उन्होंने अपना नेत्र (कमलनयन) अर्पित करने का निश्चय किया। माँ दुर्गा उनकी भक्ति से प्रसन्न हुईं और उन्हें विजय का आशीर्वाद दिया। इसके बाद दशमी के दिन श्रीराम ने रावण का वध किया। इसी कारण शारदीय नवरात्रि को शक्ति की उपासना और विजय की साधना का पर्व माना जाता है।
ऐतिहासिक संदर्भ:- भारतीय इतिहास में नवरात्र राजकीय और सामाजिक उत्सव रहा है। गुप्त-काल, चालुक्य-काल से लेकर मराठा साम्राज्य तक राजा-महाराजा ‘देवी दुर्गा’ की पूजा करके शक्ति-प्राप्ति की कामना करते थे। ‘छत्रपति शिवाजी महाराज’ ने आदिशक्ति माँ भवानी को अपना कुलदेवी मानकर विजयादशमी के दिन शस्त्रपूजा की परंपरा प्रारंभ की। राजस्थान, कर्नाटक और बंगाल में यह परंपरा आज भी जीवित है।
नवरात्र के प्रमुख अनुष्ठान और उनका महत्व
1. उपवास (नौ दिन का व्रत) उपवास का उद्देश्य केवल भोजन से विरति नहीं, बल्कि इंद्रिय संयम और आत्मशुद्धि है। ऋतु परिवर्तन पर शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता घटती है। उपवास, फलाहार और हल्का आहार पाचन को संतुलित करता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह डिटॉक्सिफिकेशन (शरीर की सफाई) का श्रेष्ठ साधन है। इससे शरीर की ऊर्जा आंतरिक मरम्मत रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करने लगती है। नींबू पानी फल और सूखे मेवों का सेवन शरीर को आवश्यक विटामिन और मिनरल्स प्रदान करता है। उपवास में खाए जाने वाले खाद्य पदार्थ जिसे कूट्टू का आटा सिंघाड़े का आटा साबूदाना फल पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। इस प्रकार की आहारचर्या हमें आध्यात्मिकता और शरीर विज्ञान के बीच संतुलन को सिखाती हैं।
2. गरबा और डांडिया नृत्य:- गुजरात एवं पश्चिम भारत में गरबा और डांडिया देवी के “गर्भ” (शक्ति के केंद्र) की प्रतीक उपासना है। वृत्ताकार नृत्य सौर मंडल और जीवन चक्र का प्रतीक है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह सामूहिक आनंद और एकात्मता का अनुभव कराता है। यह नृत्य शारीरिक गतिविधि को बढ़ाते हैं जिससे कैलोरी बर्न होती है और शरीर में रक्त संचार सुचारू रूप से होता है। यह न्यूरोट्रांसमीटर जैसे सेरोटोनिन के स्तर को संतुलित करता है। जिससे तनाव और अवसाद कम होता है, एकाग्रता बढ़ती है मन शांत होता है और मानसिक स्पष्टता आती है।
3. जवारे (नवरात्रि के खेत/कलश स्थापना) मिट्टी में गेहूं, जौ या धान के बीज बोकर उन्हें उगाना सृष्टि चक्र और उर्वरता का प्रतीक है। यह कृषि-आधारित समाज में प्रकृति और देवी को अन्नदाता मानने का संस्कार है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह मौसम और मिट्टी की उर्वरता की जाँच का पारंपरिक तरीका भी है।
4. कन्या पूजन (अष्टमी/नवमी पर) कन्या को शक्ति का स्वरूप मानकर पूजन करना नारी के प्रति आदर और सम्मान का संस्कार है। यह समाज में स्त्री-पुरुष संतुलन और मातृशक्ति की स्वीकृति का प्रतीक है। समाज में महिलाओं की समान भागीदारी उनके गौरव एवं महत्व को बनाए रखने एवं कन्या भ्रूण हत्या रोकने की भावना को प्रस्फुटित करती है।
5. वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष:- वैज्ञानिक दृष्टि से नवरात्र डिटॉक्स, ऋतु-परिवर्तन, सूर्य-ग्रहणीय ऊर्जा परिवर्तन और मानसिक एकाग्रता का समय है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह आत्मविश्वास, सामूहिक चेतना, आनंद और आध्यात्मिक संतुलन प्रदान करता है। उपवास और जप-ध्यान से मस्तिष्क में सेरोटोनिन और डोपामिन का स्तर बढ़ता है, जिससे व्यक्ति प्रसन्न और ऊर्जावान अनुभव करता है।
6. सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व:- शारदीय नवरात्र केवल पूजा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक उत्सव है। संगीत, नृत्य, भक्ति और सामूहिक आयोजन समाज को जोड़ते हैं। यह पर्व नारी-शक्ति के सम्मान का संदेश देता है। परिवार और समाज में सामूहिक आयोजन (जैसे गरबा, दुर्गापूजा, रामलीला) सामाजिक एकता और सहयोग को प्रगाढ़ करते हैं। शारदीय नवरात्र केवल धार्मिक आस्था का पर्व नहीं है, बल्कि यह वैदिक ऋतु-संस्कार, पौराणिक शक्ति उपासना, ऐतिहासिक परंपरा, वैज्ञानिक स्वास्थ्य साधना और सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का संगम है। नौ दिन की साधना से व्यक्ति आत्मबल, सामूहिक आनंद और प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करता है। गरबा, उपवास, जवारे और कन्या पूजन जैसी परंपराएं हमें हमारी जड़ों से जोड़कर जीवन को संतुलित, उन्नत और आनंदमय बनाने का मार्ग दिखाती हैं।**‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या, द्रविणम त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देव देव …’।
हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां, महाकाव्य, उपनिषद आदि सब आदिशक्ति [देवी माँ या माँ दुर्गा] की अपार महिमा के गुणगान से भरे पड़े हैं। असंख्य ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, पंडितों, महात्माओं, विद्वानों, दर्शनशास्त्रियों, साहित्यकारों ने भी आदिशक्ति के प्रति पैदा होने वाली अनुभूतियों को कलमबद्ध करने का भरसक प्रयास किया है। उनमें से एक छोटा सा प्रयास मेरा भी रहा है।
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त