‘समाज में वैचारिक बढ़ती खाई: एक चिंताजनक उभरती तस्वीर
‘डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’
वर्तमान भारतीय समाज जो सदियों से एक साथ रह रहा है, आपसी रिश्तों की डोरी ज्यादा कमजोर होती जा रही है। इसका कारण यह देखा गया है कि इंसान गलतफहमी का शिकार होता जा रहा है और भाईचारे की गहराती खाई को पाटने के स्थान पर सवालों का जवाब खुद ही बनानें लगता है।
यह स्थिति तब है जब वर्तमान समय में आजादी के पचहत्तर साल पुरे हो गए हैं और शैक्षिक ढांचे के मामले में भारत 50 देशों में दूसरे स्थान पर है । भारतीय राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों की साक्षरता दर 73.5% और शहरी क्षेत्रों की साक्षरता दर 87.7% है। विकासशील भारत में भेदभाव रूपी ऐसी तस्वीर देख रहे हैं जो हमें चिंतित करती है। रिश्तों में खटास, परिवार में विघटन, धर्म के नाम पर खाई, भाषाई विवाद, और राजनीतिक कटुता के लक्षण हमें एक ऐसे भविष्य की ओर ले जा रहे हैं जो धार्मिक , सामाजिक और क्षेत्रीय स्तर पर बिखराव का संकेत और संदेश दे रहे हैं। यदि इसी तरह के वैचारिक मतभेद बने रहते हैं तो भारत माता के लिए कष्ट दायी स्थिति पैदा होने से कोई नहीं रोक सकता है।
देश में विद्यमान अनेकता को देखते हुएमहात्मा गांधी ने कहा था, “हमें अपने विचारों को बदलना होगा, तभी हम अपने जीवन को बदल सकते हैं।” लेकिन वर्तमान समाज में, हम देख रहे हैं कि लोग अपने विचारों को बदलने के बजाय, दूसरों पर आरोप लगाने और विवाद पैदा करने में अधिक रुचि ले रहे हैं। ‘जैसा बोओगे वैसा पाओगे’ के आलोक में एक उदाहरण लेते हैं। एक छोटा सा बच्चा अपने माता-पिता को देखता है कि वे छोटी छोटी बातों पर आपस में लड़ रहे हैं। वह बच्चा क्या सीखता है? वह सीखता है कि विवाद और लड़ाई ही समस्याओं का समाधान है। और जब वह बड़ा होता है, तो वह भी इसी तरह के व्यवहार को अपनाता है। भारत में तेरहवीं शताब्दी के बाद धार्मिक उन्माद का विघटनकारी परिणाम को देखते हुए स्वामी विवेकानंद ने देश को एकजुट करने के उद्देश्य से कहा था, “हमारे पास एक ही धर्म है, और वह है मानवता।” लेकिन वर्तमान समाज में, हम देख रहे हैं कि लोग धर्म के नाम पर कटुता पैदा कर रहे हैं । परिणाम स्वरूप एक ही गांव और मोहल्ले में रहने, एक ही कूवे का पानी पीने वाले कहा कहे, एक दूसरे के प्रति घृणा और अविश्वास करने में देर नहीं लगते हैं।
गांधीवादी और शांति के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात मानवतावादीनेल्सन मंडेला ने जेल में रहते हुए आजादी के महत्व को समझते हुए विश्व को संदेश दिया था कि “स्वतंत्रता का अर्थ है दूसरों को भी स्वतंत्रता देना।” लेकिन वर्तमान समाज में, हम देख रहे हैं कि लोग अपने अधिकारों की मांग करते हैं, लेकिन दूसरों के अधिकारों की अनदेखी करते हैं।भारत में तो अक्सर देखा जा रहा है कि निन्यानवे प्रतिशत लोग संविधान की दुहाई देते हैं और संवैधानिक संस्थाओं का माखोल उड़ाते हैं । संवैधानिक संस्थाओं पर प्रश्न उठना और उनके निर्णय को कटघरे में खड़ा करना राजनीतिक नेताओं की दिनचर्या बनती जा रही है। संवैधानिक पदों पर बैठे कर्मचारी अधिकारी भ्रष्टाचार करते हैं। नागरिक अधिकारों का हनन करते हैं और न्याय के क्षेत्र में पद का दुरूपयोग करते हुए लिपापोती करने में शर्म नहीं करते।इस तरह की विकृत मानसिकता और विचारों को ध्यान में रखते हुए, यह समझना होगा कि समाज धार्मिक और राजनीतिक बढ़ती दरार को रोकने के लिए सभी संवैधानिक शीर्ष संस्थाओं को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
कलुषित विचारों को धराशाई करने के लिए हमें अपने शैक्षणिक संस्थानों में इस तरह के पाठ्यक्रम को सम्मिलित करना होगा जिससे मानव मूल्यों का स्थापना हो। धर्म से जुड़ी धार्मिक संस्थाओं और उनके प्रमुखों को गंभीरता के साथ है विचार करना होगा कि हम अपने धर्म में फ़ैल रही कट्टरता को शिथिल करने पर विचारों को बदलना होगा। हमें एक दूसरे के प्रति सम्मान और समझदारी बढ़ानी होगी, और समाज में शांति और सौहार्द को बढ़ावा देना होगा। हॅंसमुख चिंतन तो यही कहता है कि हम सब मिलकर समाज में बढ़ती दरार को रोकने के लिए काम करें, और एक शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण समाज का निर्माण करें।ऐसा करना हमारी भारत माता के भविष्य के लिए हितकर होगा। वरना इतिहास गवाह है कि बाटोगे तो काटोगे। एक रहोगे तो नेक रहोगे। अच्छे विचार रखोगे तो विकास करोगे। प्रेम भाव से रहना ही धार्मिक सहिष्णुता है।