महाशिवरात्रि: ऐहलोकिक एवं पारलोकिक दृष्टि से भगवान शिव को समझने का दिन


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डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’
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हिंदू धर्म में महाशिवरात्रि एक महत्वपूर्ण त्यौहार फाल्गुन मास की कृष्ण त्रयोदशी को बड़े ही श्रद्धा सुमन समर्पण भाव से भगवान शिव और माता पार्वती की आराधना के लिए मनाया जाता है। वैसे हिंदू धर्म में आदि अनादि काल से प्रतिदिन कोई न कोई त्यौहार और पर्व होता है। मान्यता यहां तक है कि मनुष्य का प्रति पल त्यौहार है और उसे आनंद की अनुभूति के साथ व्यतित करते रहना चाहिए।
शिवपुराण के अनुसार फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को महाशिवरात्रि का त्यौहार मनाए जाने का अपना एक विशेष महत्व है, क्योंकि शिवजी त्रयोदशी के देवता हैं। मान्यता है कि ब्रह्मा ने रूद्र रूपी शिव की उत्पत्ति इसी दिन की थी। इसी दिन शंकर ने तांडव नृत्य करके और डमरू बजाकर सारे वायुमंडल में ज्ञान- विज्ञान बिखेरा था।
ऐहलोकिक और पारलोकिक दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं जो जीवन और जगत को देखने के तरीके को दर्शाते हैं।
ऐहलोकिक अर्थात धर्म निरपेक्ष दृष्टि, एक ऐसा दृष्टिकोंण है जो जीव और जगत को मात्र भौतिक और सांसारिक दृष्टि से देखता है। इस दृष्टिकोंण से शैव परंपरा में जीव और जगत की सभी घटनाएं और प्रक्रियाएं प्राकृतिक और भौतिक नियमों के अनुसार होती हैं।

शिव की ऐहलोकिक शक्ति में ध्यान केंद्रित करने वालों का मानना है कि – मानव जीवन की सांसारिक और भौतिक आवश्यकताओं
, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने की दृष्टि से महाशिवरात्रि का त्योहार मनाया जाता है।
शिव को पारलोकिक दृष्टि से समझना, एक ऐसा दृष्टिकोंण है जो जीवन और जगत को एक आध्यात्मिक और अधिभौतिक दृष्टि से देखता है। इस दृष्टि से समझने वाले मानते हैं कि जीवन और जगत की सभी घटनाएं और प्रक्रियाएं एक उच्च और आध्यात्मिक शक्ति के नियंत्रण में होती हैं और मानव जीवन की आध्यात्मिक और अधिभौतिक आवश्यकताओं , ईश्वर या उच्च शक्ति के साथ संबंध , आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षरता का साक्षात्कार होता है।
स्मरण रहे, दोनों दृष्टिकोंण किसी भी स्तर पर एक दूसरे के विरोधी न होकर एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों दृष्टिकोंण को शामिल कर एक संतुलित दृष्टिकोंण की स्थापना की जा सकती है। जिससे जीव और जगत की एक अधिक व्यापक और गहरी समझ प्राप्त हो सकती है।
वैसे तो हर माह का तेरहवां दिन अर्थात अमावस्या से दो दिन पूर्व का दिन शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। एक कैलेंडर वर्ष में आने वाली सभी शिवरात्रियों में महाशिवरात्रि का महत्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मान्यता है कि इस दिन हमारी पृथ्वी उत्तरी गोलार्द्ध में इस प्रकार अवस्थित होती है कि मनुष्य के भीतर की प्राकृतिक ऊर्जा पैरों से रूप से मस्तिष्क की ओर अग्रसर होती है। वर्ष का यह एक ऐसा दिन -रात है, जब प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक ले जाने में मदद करती है।
सनातन परंपरा में भगवान शिव के गृहस्थी जीवन में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में शिव भक्त उत्सव में एक बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि ऊर्जाओं के प्राकृतिक प्रवाह को उमड़ने का पूरा अवसर मिले। इसलिए शिव शक्ति की आराधना में लीन भक्त अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए निरंतर जागते और मत्रों का जाप रहते हैं।
सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में मग्न लोग महाशिवरात्रि को, शिव के द्वारा अपने शत्रुओं पर विजय पाने के दिवस के रूप में मनाते हैं। क्योंकि शिव सुंदरता से नाजुक होने के बावजूद दुश्मन को क्षमा न करने वाले दिव्य स्वर्ग से जुड़े हैं । परंतु, जनसामान्य साधकों के लिए, यह वह दिन है, जिस दिन शिव कैलाश पर्वत के साथ एकात्म हो गए थे। मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव एक पर्वत की भाँति स्थिर व निश्चल हो गए थे। यौगिक परंपरा में, शिव को किसी देवता की तरह न पूजते हुए “पहले गुरु, जिनसे ज्ञान उपजा”, आदि गुरु मान कर पूजा- अर्चना करते हैं, क्योंकि भगवान शिव ध्यान की अनेक सहस्राब्दियों के पश्चात् इसी महाशिवरात्रि के दिन पूर्ण रूप से स्थिर हुए थे। उनके भीतर की सारी गतिविधियाँ शांत हुईं और वे पूरी तरह से स्थिर हुए, इसलिए योग परंपरा में महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में भी मनाते हैं।
महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक महत्व
के पीछे की कथाओं को छोड़ भी दें, तो भी आधुनिक विज्ञान अनेक चरणों से होते हुए, आज उस बिंदु की व्याख्या करता है, जहाँ शिव ने मानव जाति को अनेक प्रमाण दिये हैं कि मानव जिस भी रूप में शिव को जानते हैं, चाहे पदार्थ और अस्तित्व के रूप मे या फिर ब्रह्माण्ड और तारामंडल के रूप में ; वह सब केवल एक ऊर्जा है, जो स्वयं को लाखों-करोड़ों रूप में प्रकट करती है। यह वैज्ञानिक तथ्य प्रत्येक योगी के लिए एक अनुभव से उपजा सत्य है। ‘योगी’ शब्द से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जिसने अस्तित्व की एकात्मकता को जान लिया है। जब कोई योगी कहता है तो वह किसी विशेष अभ्यास या तंत्र की बात नहीं करता , अपितु सृष्टि के असीम विस्तार और अस्तित्व में एकात्म भाव को जानने-समझने की चाह का प्रकटीकरण करता है।
मान्यता है कि शिवरात्रि वर्ष एवं फागुन माह का सबसे अंधकारपूर्ण रात्रि होती है। इस मान्यता के हिसाब से महाशिवरात्रि का उत्सव मनाना ऐसा लगता है मानो मानव जीवन में फैले अंधकार को प्रकाश में बदलने का उत्सव मना रहा हो। प्रत्येक तर्कशील मन अंधकार को नकारते हुए, प्रकाश को सहज भाव से चुनना चाहेगा। शिव का शाब्दिक अर्थ भी यही है, ‘जो नहीं है’। ‘जो है’, वह अस्तित्व और सृजन है। ‘जो नहीं है’, वह शिव है। ‘जो नहीं है’, उसका भी अर्थ है। इस विस्तार और असीम रिक्तता को ही शिव कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान ने भी साबित कर दिया है कि सब कुछ शून्य से ही उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाता है। इसी संदर्भ में विशाल रिक्तता या शून्यता को ही महादेव के रूप में जाना जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि महाशिवरात्रि का महत्व ऐहलोकिक और पारलौकिक दोनों दृष्टिकोण से है। ऐहलोकिक दृष्टिकोण से यह त्योहार भगवान शिव की शक्ति और उनके गृहस्थी जीवन में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। पारलोकिक दृष्टिकोण से यह त्योहार भगवान शिव की आध्यात्मिक शक्ति और उनके साथ एकात्म होने के अवसर के रूप में मनाया जाता है।
भगवान शिव की महिमा अनंत है। वह एक ऐसे देवता हैं जो अपने भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा करते हैं। शिव एकमात्र ऐसे देवता हैं जो अपने भक्तों को आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति प्रदान करते हैं।

महाशिवरात्रि एक ऐसा त्योहार है जो हमें भगवान शिव की महिमा और उनकी शक्ति को समझने का अवसर प्रदान करता है। यह त्यौहार हमें अपने जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करने के लिए शिव की आराधना के लिए प्रेरित करता है।

डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’

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