भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव।
भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध संस्कृतियों में से एक है। यह संस्कृति अपनी विविधता, बहुलता, और सहिष्णुता के लिए जानी जाती है। धार्मिक विविधता भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है अर्थात भारतीय संस्कृति में कई धर्मों का पालन किया जाता है, जिनमें हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म, और जैन धर्म शामिल हैं।
सामाजिक बहुलता भारतीय संस्कृति की दुसरी विशेषता है। यहां कई जातियों, समुदायों, और भाषाओं का समावेश है।
सांस्कृतिक विरासत भारतीय संस्कृति की तीसरी विशेषता है जिसमें संगीत, नृत्य, कला, साहित्य, और वास्तुकला शामिल हैं।
धर्म में पारिवारिक मूल्य को बहुत महत्व दिया जाता है। परिवार को समाज की मूल इकाई माना जाता है। भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक मूल्यों को बहुत महत्व दिया जाता है, क्योंकि यह आत्म-ज्ञान, आत्म-साक्षात्कार, और मोक्ष की प्राप्ति पर जोर देता है।
सहिष्णुता और सामंजस्य भारतीय संस्कृति में विभिन्न धर्मों, जातियों, और समुदायों के बीच बढ़ावा देती है। प्रकृति को आदि अनादि काल से एक जीवंत और पवित्र इकाई मानती है। भारतीय संस्कृति में शिक्षा और ज्ञान को आत्म-विकास और समाज के विकास के लिए आवश्यक माना जाता है।
सामाजिक न्याय भावना भारतीय संस्कृति में असमानताओं और अन्याय को दूर करने के लिए काम करती है। भारतीय संस्कृति में राष्ट्रीय एकता को बहुत महत्व दिया जाता है।
भारतीय संस्कृति के विविधता, बहुलता, और सहिष्णुता को समझने के पश्चात अब पश्चात संस्कृति को समझने का प्रयास करेंगे।
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने भारतीय संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला है।
पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भारत में 18वीं शताब्दी में शुरू हुआ, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना आधिपत्य स्थापित किया। इसके बाद, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने भारतीय संस्कृति पर कई तरह से प्रभाव डाला।
एक ओर, पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को आधुनिक बनाने में मदद की। इसने भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य, और तकनीक के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन, दूसरी ओर, पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय संस्कृति की मूल पहचान को भी प्रभावित किया।
आजकल, भारतीय युवा पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर अपनी मूल संस्कृति को भूलने लगे हैं। लोग पाश्चात्य पोशाक, संगीत, और फिल्मों की ओर आकृष्ट हुए और अपनाने लगे हैं। इसके अलावा, पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय परिवार की मूल संरचना को उल्टे सीधे सिद्धांत को प्रचारित किया और भारत को संस्कृति को निम्नीकरण कर। प्रभावित किया है।
युवा संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार की ओर बढ़ रहे हैं। विवाह संपन्न प्रकिया में मूल तत्व के स्थान पर, डीजे बजाने और फूहड़ गानों पर थिरकने लगे हैं। तलाक का प्रतिशत उतरोतर बढ़ता ही जा रहा है। मानवीय मूल्य और सरोकार का स्तर निम्न से निम्नतम होता जा रहा है। भाई भाई, भाई बहन, पिता पुत्र, मामा भांजा के रिश्ते टूटते जा रहें हैं और अंकल आंटी के रिश्ते बढे़ते जा रहें हैं।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि
“पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय संस्कृति का चक्र दूषित कर दिया है। स्त्रोत प्रदुषित कर दिया। संस्कृति सभ्यता प्रवाह के स्त्रोत को सुखा दिया है। जिसके कारण निर्मल, उज्जवल,साफ, स्वच्छ जीवन को प्रदुषित कर दिया है।
पहले कपड़े में कोई धागा निकल जाता था तो उसे काट दिया जाता था। फटे हुए कपड़े को सलीके से सिला जाता था। अब कपड़े फाड़ फाड़ कर पहनने की प्रथा चल पड़ी है। वृद्ध आश्रय, अनाथालय, नारी संरक्षण गृह, बाल संरक्षण गृह पाश्चात्य संस्कृति की उपज है।
भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है। हमें अपनी संस्कृति के मूल मूल्यों को समझना और उनका पालन करना होगा, ताकि हम अपनी संस्कृति की विविधता और बहुलता को बनाए रख सकें। नई पीढ़ी जागृत और शिक्षित हो कर संस्कारवान बनें और बनाएं।
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डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’
सेवा निवृत्त प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय संगठन,
सदस्य विद्या भारती मध्य क्षेत्र एवं मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निर्माण एवं देखरेख समिति