पलायन पर प्रशासन प्रभावहीन,
जनजाति क्षेत्र के लोग कार्य के अभाव में, कार्य की तलाश में चल निकले घर छोड़कर।
रिंकेश बैरागी,
पलायन जनजाति क्षेत्र के लिए एक अभिशाप सा है, अंचल में इन दिनों ग्रामीण अपने साथ कुछ महिनो का राशन, और सामग्री लेकर कामकाज की तलाश में निकल कर अपना घर जिला और राज्य छोड़कर अन्य प्रदेश में जा रहें हैं। पलायन पर जाने वाले मजबूरी में अपना घर त्यागकर मजदूरी के लिए निकलते हैं, उनके पास अन्य राज्यों में जा कर काम करके अपना और परिवार का जीवन व्यापन करने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं होता। जिले में रह कर उनका कर्जा दिन दुनी रात चौगुनी रुप से बढ़ता है जिसे समाप्त करने के चक्कर में जनजाति समाज के लोग पलायन के पथ पर अग्रसर हो जाते है।
दीपावली त्योहार की समाप्ती के बाद जिले में शाम के समय लंबी रुट वाली बसो के रास्ते पर स्थान-स्थान पर बोरियों बिस्तर के साथ ग्रामीण बैठे हुए मिलते हैं ये सभी जीवन व्यापन के लिए, अर्थ की व्यवस्था के लिए अधिकतर गुजरात, राजस्थान, और महाराष्ट्र राज्य में पलायन के लिए जा रहे हैं, क्योंकि इनको अपने ही अंचल में इतनी सुविधा या रोजगार नहीं मिलता कि, ये लोग यहां रहकर गुजर-बसर कर सके। प्रशासन की योजनाओ पर क्रियान्वन इस दृश्य पर फिका सा दिखाई पड़ता है, वहीं शासन के दावे और वादे शक्तिहीन और बेबुनियादी से प्रतित होते है। प्रदेश में सरकार चाहे किसी की भी हो वो जनजाति क्षेत्र में होते लोगों के पलायन के इस घाव को कभी भर नहीं पाई। यहां के नेता अपने ही समुदाय के लोगों को इस स्तर पर बेवकूफ बनाते आते रहें और अपनी झोलिया भरते रहे, सुविधाओ और योजनाओ की पुर्ती के लिए अपने अधिनस्थ कार्यकर्ताओ को लाभांवित कर इतिश्री करते आ रहे हैं, जिसके परिणाम स्वरुप आज भी ग्रामीण निर्धनता के वश में पलायन के चक्र में चलता-चलता पेरो में छाले कर लेता है और उसके उसी चक्र को फिर उसका वंशज पलायन के चक्र में फंस कर चलने को मजबूर हो जाता है, लेकिन निर्मम नेता निर्लज्ज होकर इस युति को देखता है मगर कभी इस समस्या के समाधान पर सुविचार नहीं रखता।
अंचल का नेता, विधायक हो या सांसद, विधानसभा या संसद में चिल्ला चिल्ला कर जनजाति क्षेत्र की निर्धनता से, बेराजगारी से, और अन्य असुविधाओ से अवगत करवाकर सरकार से योजनाओं का भंडार खुलवाता है मगर वो सारी सुविधा और योजना का लाभ उन ग्रामीणों तक नहीं पहुंचता, बल्कि नेता अपने विशेष चाटुकारों को देकर सारा खजाना लूट लेते हैं। दीपावली पर्व के पश्चात ग्रामीणों की भीड़ अन्य राज्य में काम पर जाने के लिए बहुत से स्थानों पर देखने को मिल जाएगी। पलायन पर जाने वाले रामा विकासखण्ड के ग्राम रोटला के एक ग्रामीण से बात की गई तो उसने बताया कि, घर पर दो बुजुर्ग को छोड़कर बाकी सभी काम पर जाते है।
ग्रामीणों को पलायन करना मजबूरी इसलिए हो जाती है क्योंकि उनके पास खेती करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं होता, जहां कहीं जमीन पर जल होता भी है तो इतना कम होता है कि, उससे फसल को पकाया नहीं जा सकता। जमीन पर जल की व्यवस्था करने के लिए शासन ने बहुत सी योजनाओ को लागु किया, जिसमें कुएं, नहर, बोरी बांध, तालाब निर्माण, हेण्डपंप खनन, किया जाता है लेकिन लचर प्रशासन की व्यवस्था पर भ्रष्टाचार का किड़ा ग्रामीणों को मिलने वाले पर्याप्त लाभ को चाट जाता है, और ग्रामीण अपने ही समुदाय के नेता, प्रतिनिधी होने पर भी स्वयं को असहाय अनुभूत करता है।
दूसरा मुख्य कारण अंचल में कार्य का अभाव जिसके कारण ग्रामीण परिवार को पालने की प्रक्रिया में पलायन के पथ पर परिवार के साथ अपने परिजनों से दूर चला जाता है। इस समस्या के निवारण के लिए भी सरकार ने जिस योजना का क्रियांवन कर अपनी पीठ थपथपाई वो भी प्रशासन के लालची स्वभाव में आकर बंदरबांट की भेंट चढ़ गई। इस योजना में ग्रामीणों को 100 दिन का रोजगार पंचायत द्वारा दिया जाना होता है लेकिन वहां भी भ्रष्टाचार का दीमक पहले से ही मौजुद होकर निर्धन ग्रामीण के लाभ को समाप्त करता है। पंचायत स्तर पर बहुत सी बार मजदूरो के बजाय मशीनों से कार्य करवाया जाता और वे मशीने या तो नेता के प्रतिनिधी की होती है या फिर स्वयं सरपंच या नेता की होती है, जहां कहीं मजदुरो से कार्य करवाया भी जाता है वहां भी 10 प्रतिशत लिस्ट में नाम ऐसे लिखे जाते है जो उस स्थल पर कार्य नहीं कर रहें होते, और 10 प्रतिशत वो होते हैं जो आधे दिन काम कर पूरा मेहताना लेते है। इन 20 प्रतिशत मजदूरो की मजदूरी दर्शाई जाती है और उस पर भ्रष्टाचार का तिलक लगता है।
तीसरा मुख्य कारण है ग्रामीणों पर कर्ज जिसके चक्रव्युह में जनजाति समुदाय का व्यक्ति न चाहते हुए भी फंस जाता है, और फिर उस कर्ज को उतारने के लिए ब्याज के कांटेदार पहिए में गोल-गोल घुम कर अपना सबकुछ गवां देता है, कभी-कभी तो कर्ज पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है, और उसे समाप्त करने के लिए या तो उसे पुरखो की भूमि को बेचना पड़ती है या फिर पलायन के रास्ते पर प्रगाढ होना पड़ता है। शासन ने इस समस्या के निवारण के लिए भी बहुत से वादे किए, सुदखोरो के विरोध में नियम कानुन को लाया गया, सभी प्रकार की बैंक से लोन की सरल योजनाओं को बनाया, खेत पर फसल के लिए भी लोन सुविधा दी गई, परंतु फिर से लचर व्यवस्था ने प्रत्येक निर्धन के लाभ पर पानी फेरा। बैंक लोन भी अच्छा खासा कमिशन या रिश्वत देकर दिया जाता है और यदि सबकुछ ठिक रहता है तो लोन मिलने का समय इतना अधिक हो जाता है कि ग्रामीण ब्याज के भार में दब जाता है। कर्ज कुप्रथाओ, दहेज दापा, के कारण बहुत अधिक हो है, जिसे ग्रामीण चाह कर भी नहीं बच पाता।
पलायन के पथ पर अग्रसर परिवार पेट पालने की परिक्रमा में अपने आने वाली पीढ़ी के भविष्य को पथभ्रष्ट कर देते हैं, उनके साथ जाने वाले बच्चें शिक्षा से वंचित रहते हैं और जागरुकता के अलख से दूर वो भी आने वाले समय में पलायन के अंधकार में जाने को मजबूर होते है। जबकि जिले में अनेक योजना में सेकड़ो तालाब स्विकृत हो चुके है, कई नदियां बहती है लेकिन शासन प्रशासन नाकाम होकर नजारों को निहार रहा है।
पलायन पर मजदूरी को जाने वाले ग्रामीणों के इस दृश्य को देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि शासन के सारे दावे और प्रशासन की कड़ी मेहनत एक प्रकार का दिखावा है, बेइमानी है और जनजाति समाज के साथ धोका है।