नवरात्र में नवदुर्गा और उसके 9 रूपों का वैज्ञानिक-दर्शनात्मक विश्लेषण नवरात्र।
बांगरू-बाण श्रीपाद अवधूत की कलम से
नवरात्र में नवदुर्गा और उसके 9 रूपों का वैज्ञानिक-दर्शनात्मक विश्लेषणनवरात्र की आज नवमी तिथि है। आदिशक्ति के इस उपासना पर्व में 9 अंक का क्या महत्व है एवं आधुनिक विज्ञान के बिग बैंग सिद्धांत आइंस्टाइन के सूत्र (E=mc 2), और सनातन परंपरा के सांख्य दर्शन का समन्वित दृष्टिकोण क्या है..?? इसे समझने का प्रयास करेंगे…!!!
भारतीय संस्कृति के पर्व केवल आस्था या अनुष्ठान मात्र नहीं हैं, बल्कि वे गहन वैज्ञानिक, दार्शनिक और स्वास्थ्यगत संदेशों से परिपूर्ण हैं। नवरात्र ऐसा ही पर्व है, जिसमें शक्ति-पूजन, आत्मसंयम, और सामुदायिक आनंद का अनूठा समन्वय है। आधुनिक विज्ञान के बिग बैंग सिद्धांत, आइंस्टीन का समीकरण (E=mc 2), और नाभिकीय ऊर्जा के संदर्भ में यदि हम इस पर्व का विश्लेषण करें, तथा वेद-उपनिषद,और सांख्य दर्शन से इसकी तुलना करें, तो नवरात्र की वैज्ञानिक और सांस्कृतिक महत्ता और स्पष्ट हो जाती है।बिग बैंग और वैदिक सृष्टि-दर्शन भारतीय सनातन अवधारणा में हिरण्यगर्भ जिसे पाश्चात्य विज्ञान बिग बैंग के रूप में जानता है।
इस सिद्धान्त के अनुसार लगभग 13.8 अरब वर्ष पूर्व ब्रह्मांड एक सिंगुलैरिटी अर्थात अत्यंत सूक्ष्म और घनीभूत बिन्दु से उत्पन्न हुआ है। इस विस्फोटनुमा घटना में ऊर्जा और पदार्थ का सृजन हुआ है। सनातन हिन्दू मान्यता के अनुसार आद्यशक्ति[देवी] जिसे हम प्रकृति या ऊर्जा कहते हैं से सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण हुआ है। यहाँ वैज्ञानिक दृष्टि से शक्ति/ऊर्जा =पदार्थ और सृष्टि=ब्रह्मांड हैं। आधुनिक विज्ञान कहता है कि ब्रह्मांड एक बिंदु (singularity) से उत्पन्न होकर निरंतर फैल रहा है।
ऋग्वेद का नासादीय सूक्त (ऋग्वेद 10.129) इसी रहस्य पर प्रश्न करता है:> “नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।”(तब न अस्तित्व था, न अनस्तित्व; न आकाश था, न अंतरिक्ष।)यह श्लोक स्पष्ट करता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति शून्य से हुई और वहीं महाशक्ति धीरे धीरे विविध रूपों में प्रकट हुई। यही शक्ति नवरात्र में देवी दुर्गा या आदिशक्ति के रूप में होती है। यहाँ वेद और विज्ञान दोनों सृष्टि की अनादि रहस्यपूर्ण उत्पत्ति पर विचार करते हैं।पुराणों में इसे “ब्रह्माण्ड अण्ड” कहा गया है। विष्णु पुराण (1.2.54) कहता है:> “स एवासीत्प्रथमं ब्रह्माण्डं कारणरूपकः।”(प्रारम्भ में केवल वही ब्रह्माण्ड-रूप कारण था।) यह बिग बैंग की एक रूपकात्मक अवधारणा है।आइंस्टीन का समीकरण (E=mc 2) और शक्ति-साधनाआइंस्टीन का समीकरण (E=mc 2) यह सिद्ध करता है कि द्रव्यमान और ऊर्जा एक-दूसरे में परिवर्तनीय हैं। थोड़े-से द्रव्यमान में भी असीम ऊर्जा निहित होती है, जो नाभिकीय अभिक्रियाओं में प्रकट होती है।
नवरात्र का साधना-पक्ष इसी सिद्धांत का मानवीय और आध्यात्मिक रूपक है। साधक नौ दिनों तक संयमित आहार, उपवास, जप और ध्यान करता है। यह अनुशासन दिखने में छोटा (अल्प “mass”) प्रतीत होता है, किंतु इसका परिणाम विशाल (अत्यधिक “energy”) होता है—आध्यात्मिक शक्ति, मानसिक संतुलन और सामुदायिक एकता के रूप में।यह उसी प्रकार है जैसे एक छोटे-से परमाणु नाभिक में छिपी असीम ऊर्जा जब मुक्त होती है तो समस्त जगत को प्रभावित कर सकती है। नवरात्र हमें यह संदेश देता है कि हमारी चेतना और आत्मशक्ति भी परमाणु की तरह अनंत सामर्थ्य से परिपूर्ण है; आवश्यकता है तो केवल सही अनुशासन और साधना की।
देवी-शक्ति और वैज्ञानिक ऊर्जानाभिकीय ऊर्जा की तरह देवी की शक्ति भी द्वैतस्वरूप है—वह सृजन और संरक्षण कर सकती है, परन्तु दुरुपयोग होने पर संहार का कारण भी बन सकती है। इसलिए नवरात्र में देवी को “असुर-विनाशिनी” और “धर्मसंरक्षिणी” कहा जाता है। यह आधुनिक विज्ञान के संदेश से मेल खाता है कि शक्ति का उपयोग तभी कल्याणकारी है जब वह विवेक और नैतिकता के साथ नियंत्रित हो।
सांख्य दर्शन और सृष्टि की प्रक्रिया:-सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष की द्वैत सत्ता पर आधारित है। प्रकृति के त्रिगुण— 1.सत्त्व, 2. रजस, 3. तमस —जब संतुलन से विक्षुब्ध होते हैं, तब सृष्टि प्रकट होती है।अतिशय शुद्धता की स्थिति में कोई निर्माण नहीं हो सकता जैसे 24 कैरेट शुद्ध सोने से आभूषण नहीं बनता। इसके लिए उसमें तांबा या चांदी का मिश्रण करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रकृति से भी सृष्टि संभव नहीं है इसलिए उसकी साम्यावस्था भंग होकर आपसी मिश्रणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न विकृतियों से ही सृष्टि की आकृतियां बनने लगती हैं। सांख्य के अनुसार “रागविराग योग: सृष्टि”। अर्थात 1. प्रकृति 2. विकृति और 3. आकृति यह तीनों का क्रम होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदिशक्ति के तीनों रूप उसके तीनों गुणों और 3 क्रियात्मक वेगों के परस्पर मिलने से समस्त सृष्टि की स्थापना होती है। 3 का 3 में संघात होने से 9 का यौगिक बनता है। यही सृष्टि का पहला गर्भ है। पदार्थों में निविष्ट इन गुणों को आज हम विज्ञान की भाषा में 1.न्यूट्रल, 2.पॉजिटिव और 3.नेगेटिव गुणों में व्याख्या करते हैं। इन तीनों गुणों के आपसी सम्मिश्रण से उत्पन्न बल के 1.इषत्, 2.स्पंदन तथा 3.चलन नाम के 3 प्रारंभिक स्वर उभरते हैं। ये गति के 3 रूप हैं। इन्हें आधुनिक विज्ञान में 1.इक्वीलीबिरियम अर्थात संतुलन ऊर्जा 2.पोटेंशिअल अर्थात स्थितिज ऊर्जा और 3.कायनेटिक अर्थात गतिज ऊर्जा के नाम से जानते हैं। विज्ञान की यह पारिभाषिक शब्दावली को हम आदिशक्ति के 3 रूप 3 गुण और उनके 3 क्रियात्मक वेग से समझते हैं।
3रूप+3गुण+3वेग=9 दुर्गा (आदिशक्ति) इन सबका योग 9 होता है। इसी को हमने नवदुर्गा कहा है।इस प्रकार ये नवदुर्गा और उनके 9 प्रकार काल और समय की 9 प्रकार की ऊर्जाएं हैं। इन्हीं भौतिक ऊर्जाओं के आधार पर सृष्टि की जो आकृति बनती है। वह भी 9 प्रकार की ही है। 1ली प्लाज्मा, 2री क्वार्क, 3री एंटीक्वार्क, 4थी पार्टिकल, 5वीं एंटीपार्टिकल, 6वीं एटम, 7वीं मालिक्यूल्स, 8वीं मास और 9वें प्रकार में नाना प्रकार के ग्रह नक्षत्र। यदि हम जैविक सृष्टि की बात करें तो यहां भी 9 प्रकार ही हैं जो इस प्रकार हैं। 1ला औषधि, 2रा वनस्पति, 3री लता, 4था त्वक्सार, 5वां विरूद्, 6वां द्रमुक, 7वां स्वेदज, 8वां अंडज और 9वां जरायुज जिनसे मानव की निर्मिति होती है। यह 9 प्रकार की सृष्टि है।पृथ्वी का स्वरूप भी 9 प्रकार का है। सबसे पहले यह 1.जल रूप में थी फिर उससे 2.फेन बना अर्थात बबल्स। फिर 3. मृदा अर्थात कीचड़ बना इसके सूखने पर 4. शुष्क मृतिका बनी फिर 5. पयूष अर्थात ऊसर बनी फिर 6. सिक्ता याने रेत बनी फिर 8. शर्करा यानी कंकड़ बनी फिर 8. अश्मा यानी पत्थर बनी और फिर लोह आदि धातु बने फिर 9वें स्तर पर वनस्पति बनी। इस प्रकार शक्ति की अवस्थाएं उसके स्वभाव उसके गुण सभी कुछ 9 ही हैं। इसी प्रकार सभी महत्वपूर्ण संख्याएं भी 9 या उसके गुणक ही हैं। पूर्ण वृत 360° का होता है। अर्धवृत्त 180° का होता है। नक्षत्र 27 हैं। प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण होते हैं। इस प्रकार कुल चरण 108 हैं। कलियुग 432000 वर्ष का है। इसी क्रम में द्वापर और सतयुग हैं। ये सभी 9 के ही गुणक हैं। चतुर्युगी कल्प और ब्रह्मा की आयु भी 9 का ही गुणक है। सृष्टि का पूरा काल भी 9 का ही गुणक है। मानव के मन में 9 भाव हैं। 9 रस हैं, नवविधा भक्ति है। रत्न भी 9 हैं, धान्य भी 9 हैं। रंग भी 9 है। निधियां भी 9 हैं। इस प्रकार नौ की संख्या का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व है इसलिए इन नवरात्र में हमारे ऋषि मुनियों ने नवदुर्गा की उपासना की संकल्पना की। जो पूरी तरह विज्ञाननिष्ठ हैं।
अब नवदुर्गा के नौ रूपों का भी वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करेंगे।
1. शैलपुत्री शैल यानी पहाड़। पहाड़ घनता का प्रतीक है। शैलपुत्री का विकार घनता का ही होगा और वह जब काल और समय में प्रवेश करेगी तो जो ऊर्जा बनती है, वह ऊर्जा होती है 1. स्थिज ऊर्जा।
2. ब्रह्मचारिणीब्रह्मचारिणी यानी ब्रह्मांड में विचरण करने वाली। विचरण से विकास होता है। उसका जो विकार निकलेगा, वह विकासन का विकार होगा और वह सृष्टि में प्रविष्ट होने पर वह 2. गतिज ऊर्जा में परिवर्तित होती है।
3. चंद्रघंटाघंटा यानी ध्वनि और ध्वनि यानी प्रसारण। उसका विकार प्रसारण का विकार होगा और वह काल और समय में प्रविष्ट होने पर 3. ध्वनि ऊर्जा बनती है।
4. कुष्मांडाकुष्मांडा यानी सीताफल। उसका स्वरूप गर्भ जैसा है और उसका विकार गर्भ का विकार होगा। उससे गर्भ का ही निर्माण होगा। वह जब काल और समय में प्रवेश करेगा, उसे हम 4. नाभीकीय ऊर्जा के नाम से जानते हैं।
5. स्कंदमाता स्कंदमाता माँ है और कार्तिकेय रूपी संतान को गोद लिए है। वह वात्सल्य का प्रतीक है। उसका विकार वात्सल्य रूपी आकर्षण का विकार होगा। वह आकर्षण का विकार काल और समय में प्रवेश करने पर 5. चुंबकीय ऊर्जा बनती है।
6. कात्यायिनीकणों के निर्माण के बाद उनके आकर्षण से संकोचन प्रारंभ होता है। इसलिए कात्यायिनी का विकार संकोचन का विकार होता है। वह जब काल और समय में प्रवेश करेगी तो 6. आण्विक ऊर्जा बनती है।
7. कालरात्रिअणुओं से कणों का निर्माण होता है। बहुत सारे कण एकत्र हों तो धूल यानी रज का निर्माण होता है। धूल से अंधेरा हो जाता है। इसलिए वह कालरात्रि है। इसका विकार है विकल्पन का वह जब समय और काल के आयाम में प्रवेश करता है तो उससे 7. ताप ऊर्जा कहते हैं।
8. महागौरीकणों के जो बादल बनते हैं, उनका एकीकरण होता है। उस एकीकरण से आकाशगंगा का निर्माण होता है। आकाशगंगाओं के निर्माण होने पर नाना प्रकार के तारे, नाना प्रकार के सूर्य प्रकट हो जाते हैं। इससे ब्रह्मांड में एक प्रकाश फैल जाता है। इसलिए उसे महागौरी कहते हैं। महागौरी का विकार ज्योति है और वह जब काल और समय में प्रवेश करेगी तो उससे 8. विद्युतीय ऊर्जा का निर्माण होगा।
9. सिद्धिदात्रीआकाशगंगा के निर्माण के बाद जब यह पृथिवी आदि सभी पिंड बन जाएंगे तो इसमें रासायनिक प्रक्रिया होने लगती है जिससे जीव की उत्पत्ति होने लगती है। साथ ही रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण हाइड्रोजन, आक्सीजन आदि बनते हैं और अंतरिक्ष में फार्मल्डीहाइड के बादल बनने लगते हैं जिनसे जीवन की उत्पत्ति होती है। चूंकि ये रासायनिक प्रक्रियाएं होती हैं और उनसे जीवन बनता है इसलिए नौवीं दूर्गा को सिद्धिदात्री कहा जाता है। यानी सृष्टि निर्माण की सारी प्रक्रियाओं की सिद्धि के रूप में प्रकट होने वाली। उसका विकार पुष्टि और पूर्णता का होगा और उससे 9. रासायनिक ऊर्जा का निर्माण होगा।नवरात्र केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन है।
इसमें *बिग बैंग और वैदिक सृष्टि-दर्शन की साम्यता, सांख्य के त्रिगुण और ऊर्जा-विस्तार की तुलना, आइंस्टीन के समीकरण और आत्मशक्ति की साधना, और स्वास्थ्य-संरक्षण, तथा सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का अद्भुत संयोग मिलता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि अल्प अनुशासन से महान शक्ति का संचार संभव है, परंतु शक्ति का प्रयोग सदा विवेक और धर्म के साथ होना चाहिए। यही आधुनिक विज्ञान और सनातन परंपरा का साझा संदेश है। यह कोई पाखंड नहीं और न ही कोई थोतांड है। इसे विज्ञाननिष्ठ रूप में साधना पर्व के रूप में समझना चाहिए एवं अपनाना चाहिए।
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त