“जरा हट के” – भीमराव अंबेडकर और कबीर की समरसता : सामाजिक समरसता के युगपुरुष।
◾
◾”मत चूके चौहान,” यह समय है जब हमें अंबेडकर को उनकी सही भूमिका में समझना होगा
◾”राजनीति के रथ पर सवार अंबेडकर का अपहरण”
🖋️ लेखक – राजेश कुमरावत – वरिष्ठ पत्रकार, जनमत जागरण वेब न्यूज़ पोर्टल के संपादक।
आज जब भारत सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की राह पर है, ऐसे में भीमराव अंबेडकर का जीवन और उनके विचार एक प्रकाश स्तंभ के रूप में हमारे सामने हैं। लेकिन सवाल उठता है—क्या हमने अंबेडकर को केवल एक राजनेता, संविधान निर्माता या अनुसूचित जाति के नेता तक सीमित कर दिया है? क्या हमने उनके असली संदेश, सामाजिक समरसता और आत्मनिर्भरता की भावना को समझा? आइए इस लेख में उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को देखते हुए हिंदू समाज को जागृत करने का प्रयास करें।
📘 आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद शिक्षा का दीप जलाया :: बचपन में “महार” समुदाय से आने वाले अंबेडकर का जीवन आसान नहीं था। लोग कहते हैं कि शिक्षा का मंदिर सबके लिए है, लेकिन उन दिनों अंबेडकर के लिए यह मंदिर कांटों से भरा हुआ था। क्या आपने सुना है—जब वे स्कूल में पानी पीने जाते तो ऊंची जाति के बच्चे छुआछूत के डर से बर्तन छूने नहीं देते थे। लेकिन “मत चूके चौहान” की तरह अंबेडकर ने ठान लिया था कि चाहे कितने ही अपमान सहने पड़े, वे शिक्षा का दीप बुझने नहीं देंगे। विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई करने वाले वे पहले भारतीयों में से एक बने।
यहां पर हमें “जरा हट के” सोचना चाहिए। अंबेडकर ने विदेशों से डिग्रियां तो लीं, लेकिन उनका लक्ष्य केवल व्यक्तिगत प्रगति नहीं था। वे भारत को जगाने के लिए वापस आए। आज, जब कई लोग विदेश जाकर वहीं बसने का सपना देखते हैं, हमें अंबेडकर के इस बलिदान को याद करना चाहिए।
📘 “जरा हट के” – अंबेडकर और कबीर की समरसता :: भीमराव अंबेडकर के विचारों की जड़ें उनके परिवार और सामाजिक परिवेश में थीं। उनके माता-पिता कबीरपंथी थे, जो संत कबीर की शिक्षाओं और विचारों को अपने जीवन का आधार मानते थे। संत कबीर, जिन्होंने 25,000 से अधिक बार राम नाम का जाप किया और जात-पात से परे सामाजिक समरसता का संदेश दिया, का प्रभाव अंबेडकर के प्रारंभिक जीवन में स्पष्ट रूप से दिखता है।
कबीर की परंपरा में राम का अर्थ ईश्वर का सार्वभौमिक रूप था, न कि किसी जाति या वर्ग विशेष का देवता। अंबेडकर ने इस दर्शन को समझा और इसे अपने जीवन में आत्मसात किया। उनके परिवार में राम नाम के भजनों की परंपरा थी, जो समरसता और आध्यात्मिक एकता का प्रतीक थी। यही भावना उनके सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों में झलकती है।
दुर्भाग्य से, आज अंबेडकर को केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के नेता या संविधान निर्माता के रूप में सीमित कर दिया गया है। उनके व्यापक विचार—जो पूरे समाज के लिए समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता की बात करते हैं—को नज़रअंदाज कर दिया गया है। राजनेता अंबेडकर के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं, जबकि उनके असली उद्देश्य, सामाजिक समरसता और जातिवाद उन्मूलन, को भुला दिया गया है।
आवश्यक है कि हम “जरा हट के” सोचें और अंबेडकर को उनके संकीर्ण राजनीतिक स्वरूप से बाहर निकालकर एक समाज सुधारक और संत के रूप में देखें। उनके विचार कबीर की तरह ही मानवता की भलाई और समाज की एकता के लिए थे, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
आज के राजनीतिक परिदृश्य में अंबेडकर केवल वोट बैंक की राजनीति का हथियार बन गए हैं। लेकिन क्या अंबेडकर ने अपने जीवन को केवल एक वर्ग विशेष के अधिकार तक सीमित रखा था? राजनेता उनकी विरासत का अपहरण कर रहे हैं, जबकि उनकी असली शिक्षा—सामाजिक समरसता—धूल फांक रही है।
📘 महार का तालाब आंदोलन: सामाजिक समरसता का उद्घोष :: भीमराव अंबेडकर ने केवल शिक्षा तक सीमित रहने का रास्ता नहीं चुना। उन्होंने महसूस किया कि समाज में बदलाव लाना होगा। “महार का तालाब आंदोलन” इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। तालाब से पानी पीने का अधिकार मांगने वाला यह आंदोलन वास्तव में सामाजिक समरसता की ओर पहला कदम था। सोचिए, जिस समाज में पानी पीना भी जाति के आधार पर तय होता था, वहां अंबेडकर ने समानता की बात की।
आज हमारे समाज में जाति के नाम पर राजनीति तो होती है, लेकिन सामाजिक समरसता के लिए कौन खड़ा होता है? “मत चूके चौहान,” यह समय है जब हमें अंबेडकर की उस सोच को अपनाने की जरूरत है, जहां हर इंसान को समान अधिकार मिले।
अंबेडकर ने जाति-भेद मिटाने की लड़ाई लड़ी, लेकिन आज जाति के नाम पर राजनीति करने वाले उनके नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं। “मत चूके चौहान,” यह वह क्षण है जब समाज को समझना होगा कि जातिवाद को खत्म किए बिना वास्तविक विकास संभव नहीं।
भीमराव अंबेडकर ने आरक्षण को एक सीढ़ी की तरह देखा था, लेकिन हमने इसे स्थायी घर बना लिया। जातिवाद मिटाने की बजाय हमने इसे मजबूत कर दिया। अगर अंबेडकर आज होते, तो शायद वे कहते, “मत चूके चौहान, यह जाल तोड़ने का समय है।”
📘 धर्म परिवर्तन: सामाजिक क्रांति की शुरुआत :
“धर्म के ढांचे में बौद्ध बनाम हिंदू: एक भ्रम?” —
अंबेडकर ने धर्म परिवर्तन क्यों किया? क्या उन्होंने हिंदू धर्म का त्याग किया? नहीं। उन्होंने उस सामाजिक ढांचे को त्यागा जो मानवता के मूल सिद्धांतों के खिलाफ था। उन्होंने ईसाई धर्म और इस्लाम को इसलिए नकारा क्योंकि वे विदेशी थे। लेकिन बौद्ध धर्म को उन्होंने इसलिए चुना क्योंकि यह भारत की मिट्टी से जुड़ा था।
यहां हमें “जरा हट के” सोचने की जरूरत है। बौद्ध धर्म और सनातन धर्म में जो समानताएं हैं, उन्हें हमें समझना होगा। बुद्ध के “सम्यक” आठ मार्ग वही हैं जो सामाजिक समरसता की नींव रखते हैं। अगर आज हिंदू समाज ने अंबेडकर की इस सोच को अपनाया होता, तो शायद हमारा समाज और भी मजबूत होता।
क्या हम अंबेडकर के धर्म परिवर्तन के संदेश को समझ पाए हैं? बौद्ध और सनातन धर्म के बीच की समानताओं को नजर अंदाज कर, हमने उनकी क्रांति को विभाजन का औजार बना दिया। समय आ गया है कि हम “जरा हट के” सोचें और उनके असली उद्देश्य को अपनाएं।
📘 “जाति के नाम पर राजनीति: कब जागेगा समाज?” — भीमराव अंबेडकर को केवल संविधान निर्माता तक सीमित कर देना उनके विचारों का अपमान है। वे कबीर की तरह एक समाज सुधारक थे। कबीर के “राम” और अंबेडकर के “बुद्ध” में कोई अंतर नहीं है। दोनों का उद्देश्य था—सामाजिक समरसता।
लेकिन अफसोस, आज के राजनेता अंबेडकर का इस्तेमाल केवल वोट बैंक के लिए कर रहे हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग भी अंबेडकर को केवल आरक्षण तक सीमित समझ रहे हैं। “मत चूके चौहान,” यह समय है जब हमें अंबेडकर को उनकी सही भूमिका में समझना होगा।
📘 अब भी समय है: जागो या पछताओ
आज हमारे पास मौका है। अगर हमने अंबेडकर के विचारों को नहीं अपनाया, तो शायद हम आने वाले समय में देश में कई और “जयचंद” पैदा करने की कगार पर होंगे। अगर हिंदू समाज ने जाति और भेदभाव के इस जाल को नहीं तोड़ा, तो वह दिन दूर नहीं जब पछतावा ही हमारा साथी होगा।
“जरा हट के” सोचिए। अंबेडकर का संदेश केवल अनुसूचित जाति के लिए नहीं था; वह पूरे समाज के लिए था। अगर हम अब भी जागरूक नहीं हुए, तो समाज निर्माण में हमारी कोई भूमिका नहीं रह जाएगी।
📘 अंत में ..भीमराव अंबेडकर का जीवन एक प्रेरणा है। उन्होंने जो सामाजिक समरसता का संदेश दिया, वह आज भी प्रासंगिक है। “मत चूके चौहान,” यह समय है जब हमें अंबेडकर के विचारों को अपनाकर एक समतामूलक समाज की स्थापना करनी चाहिए। उनकी शिक्षा, संघर्ष, और समर्पण हमें प्रेरित करते हैं कि हम केवल अपनी जाति और धर्म तक सीमित न रहें, बल्कि पूरे समाज के लिए काम करें।