“जगती रिफूयजी बस्ती का नया सवेरा”

डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’

सेवा निवृत्त प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय चैनानी ऊधमपुर जम्मू-कश्मीर

इधर वितस्ता किनारे श्रीपुर मुकुट का अनमोल शीतल – शांत गहने में अर्से से ढेरा डाले हाउस बोट में 5 अगस्त 2019 के सवेरे-सवेरे खुदबुद खुदबुद उबाल उठने लगा और हमेशा हिलोरे लेते कभी न ठहरने वाले शिकारे एकाएक सहमकर ठहर गए थे। उधर सूर्य पुत्री तवी के किनारे 1990 के दशक में कट्टरपंथियों और आतंकवादियों द्वारा उत्पीड़न और धमकियों के बाद अपने घर – कारोबार छोड़कर आभाव में पलते बच्चों के साथ शरणार्थी शिविर “जगती” में रह रहे कश्मीरी पंडितों की दहलीज पर नया सवेरा नया संदेश लेकर लाया था।
जाने क्यूं भारतीय संविधान की पूर्ण प्रयोज्यता से छूट धारा 370 और 35 ए को विलोपित करना आजाद भारत के लिए कठिन चुनौती बनी हुई थी ? लोह पुरुष वल्लभभाई पटेल की यही सबसे बड़ी दुःखती नफ़्ज और नेहरू की अपने पूरकों के प्रति श्राद्ध थी। केवल एक व्यक्ति की मनमानी के चलते एक विशेष तपके को सात दशक तक संविधान के अधिकार से वंचित होना पड़ा और अपने ही देश में हजारों जवानों का अपने ही लोगों की सुरक्षा में अपनों के हाथों जान गंवानी पड़ रही थी। दशकों तक बेकसुर पंडित लोग घर ,बाजार और पथ पर तड़प तड़प कर मरते रहे और मजहब के नाम पर मुट्ठी भर परिवार अट्ठास लगाते रहे। यह हृदय विदारक परिदृश्य श्रीपुर की सदा निरा झेलम देख देख व्यथित होती रहती थी , लेकिन 17 अक्टूबर 1949 को अयंगर की नेहरू परस्त मानसिकता की उपज ‘अस्थाई अनुबंध’ संविधान मसौदे में अनुच्छेद 306 ए के रूप में धारा 370 बनकर जम्मू और कश्मीर को विशेष छूट प्रदान करने वाली निरूपित हो गई थी। इसी की कोख में पनपा एक और प्रावधान 35 ए ने “गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त, हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त” का सुख भोगने वालों को आगे चलकर बेमौत स्वर्गवासी बनाया। ख़ून से लथपथ लाशें रावी, सिंधु, झेलम,चिनाब, तवी दरिया बेबसी के आंसू बहाने के सिवाय कुछ नहीं कर सके ! जो कुछ करना था वह तो लिखा था नरेंद्र मोदी के हाथों और इसे देखने के लिए सुठेली,मध्य प्रदेश के आगर जिले में जन्में किसान परिवार के व्यक्ति को प्राचार्य बन कर जाना था।
2017 का अक्टूबर महीना था। वेबसाइट पर एक सरकारी आदेश में प्राचार्य के रूप में चैनानी, उधमपुर , जम्मू-कश्मीर में पदभार संभालने का जिक्र था। सेवानिवृत्ति आयु के नज़दीक होने की वजह से पदभार संभाले की इच्छा नहीं थी। लेकिन मन में आया की चलो, उस दुनिया को भी देखें -परखे जो आजादी के बाद से असंवैधानिक धारा 370 के चलते – चलाते खून खराबा के लिए कुख्यात थीं ।
पदभार ग्रहण करने के कुछ ही दिनों में गणतंत्र दिवस का राष्ट्रीय पर्व आ गया था। जम्मू -कश्मीर की परंपरा के अनुसार विद्यालय स्तर पर स्वतंत्र रूप से ध्वजारोहण न हो कर प्रशासन मुख्यालय पर अदब ओहदा प्रमुख द्वारा तिरंगा झण्डा फहराने और सलामी लेने की प्रथा बास्तूर कायम थी। शिक्षक, विद्यार्थी के साथ ही साथ आम जनता भी वहीं जमा होती थी। इधर नये नये बने प्राचार्य जी ने लंबे शिक्षक जीवन के बाद ध्वजारोहण की हसरत पूरी होते देख गणतंत्र दिवस मनाने की विद्यालय स्तर पर
पुरज़ोर तैयारी शुरू कर दी थी। लेकिन यह क्या? एडमिनिस्ट्रेशन फरमान के बाद हसरत धूमिल हो गई !! मन मारकर विद्यार्थी और शिक्षकों के साथ प्राचार्य जी ने गैरजरूरी परंपरा का पालन करने में ही अपनी भलाई समझी।
राष्ट्रीय त्योहार मना कर लौटते समय किसी की स्कूटर के पीछे बैठे-बैठे प्राचार्य जी सोचने लगे थे – ” चैनानी के चकोरों को अपने कार्यकाल में देशभक्ति परक शिक्षा का बीजारोपण करूंगा। उससे आगे चलकर ‘एक राष्ट्र, एक संविधान’ की विचारधारा का प्रस्फुटन होगा और मेरे जीते-जी मेरे शिष्य धारा 370 को धराशाई कर देंगे। लेकिन प्राचार्य जी की किस्मत में तो इस धारा का विलोपन और विद्यालय स्तर पर ध्वजारोहण करना ही लिखा था। इस तरह के कालजयी चिंतन में अनायास ही स्मरण हो आईं वे आतंकवादी घटनाएं जिन्हें दूरदर्शन पर देखी और अखबारों में पड़ी थी । यथा- ” भारत का स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू- कश्मीर में 1990 से आतंकवाद ने जो स्पीड पकड़ी तो खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। साल 2017 के अंत तक यहां 41000 लोग बे मौत मारे जा चुके थे। जिसमें 14000 नागरिक, 7000 सुरक्षाकर्मी और 2600 आतंकवादी थे। कहा – सुना गया कि असल में कश्मीर वादी के असंतोष की जड़ में भारतीय शासन और लोकतंत्र की असफलता मानी जाती है । विद्रोह एवं अलगाववाद की जड़ें स्थानीय स्वायत्त के विवाद से जुड़ी हुई हैं । 1970 के दशक तक कश्मीर में लोकतांत्रिक विकास बहुत ही सीमित था। 1987 में राज्य में हुए विवादित चुनाव ने उग्रवाद के लिए उत्प्रेरक का काम किया। हुआ यूं कि जम्मू-कश्मीर राज्य के कुछ विधानसभा सदस्यों ने सशस्त्र विद्रोही समूह बनाकर निलंबित मुद्दों के समाधान- जिसमें केंद्र द्वारा राजनीतिक हस्तक्षेप के खिलाफ जोर देते हुए नारा दिया था – विधानसभा में कुरान का कानून चाहिए।
कश्मीर घाटी में कुछ विद्रोही समूह पूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे तो कुछ इस क्षेत्र को पाकिस्तान में विलय करना। कुल मिलाकर विद्रोह की जड़ें स्थानीय स्वायत्त के विवाद से जुड़ी हुई थी।
इस विद्रोह के पीछे मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रियों का मानना था कि घाटी में लम्बे समय तक तनावपूर्ण स्थिति के कारण माता-पिता और युवा पीढ़ी के बीच अंतर बढ़ गया था । युवा पीढ़ी राजनीतिक स्थिति के बारे में कुछ भी करने में विफल रहने के लिए अपने माता-पिता की सौहाद्र और सहिष्णु मानसिकता को दोषी मानने लगे थे। इसलिए युवा वर्ग ने नियंत्रित भावनाओं से छुटकारा पाने और अपनी स्वयं की आक्रामकता व्यक्त करने एवं स्वछन्दता और स्वतंत्रता के विरोध में सुरक्षा बलों पर पथराव के तरीकों जैसे प्रयोग करना शुरू कर दिया था। पत्थरबाज स्कूल व कॉलेज के छात्र होते थे। इस विद्रोह एवं अलगाववाद को बढ़ाने में बेरोजगारी और अच्छी शिक्षा सुलभता की कमी जैसे मानव संसाधन विकास के अभावों ने आग में घी डालने का काम किया था।
कुछ भी हो, इसे संविधान का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि वह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान और भारत देश सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक होने के बाद भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का शिकार हो गया और कश्मीर के साथ-साथ समुचा भारत 7 दशक तक दंश झेलता रहा।

लेकिन आखिरकार रामचरित मानस का  कालजयी  दोहा -"जो इच्छा करि हुं मन माही, हरी प्रताप कछु दुर्लभ नाहीं " , साकार हुआ।  कश्मीर की वादियों में छाया अलगाववादी कोहरा छंटा और जगती रिफूयजी टाउनशिप में नये संदेश के साथ नया सवेरा आ ही गया था।

डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’

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