आखिर भारत ने युद्ध विराम इतनी शीघ्रता से स्वीकार क्यों किया? वो भी बिना शर्त? भारत की पाकिस्तान पर विजय – 5
यह यक्ष प्रश्न गत एक सप्ताह से हर भारतीय को सता रहा है। निश्चित जानकारी के अभाव में सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं। सभी लोग अपने अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर अपने अपने तर्क दे रहे हैं। कुछ तर्क नकारात्मक और कुछ सकारात्मक है। दुःखद यह है कि नकारात्मकता के मूल में मोदी द्वेष छुपा हुआ है और गत दस वर्षों में वह इतना विषैला हो चुका है कि अक्सर देश हित को भी किनारे कर देता है।
जहां तक सरकार की ओर से अधिकृत वक्तव्य आए हैं, उनसे यह जाहिर होता है कि सैन्य कार्यवाही का मुख्य लक्ष्य आतंकी अड्डों को नष्ट करना था। 6 और 7 मई की दरमियानी रात में उसी कार्य को अंजाम दिया गया। इसके पश्चात अगले दो दिन जो हुआ, भारत की भूमिका उसमे मात्र जवाबी कार्यवाही की थी।
हालांकि, इस दौरान भारतीय सेना का जो विध्वंसक रूप दिखाई दिया, वह पाकिस्तान के लिए तो एक सदमा था ही, शेष विश्व भी इस शक्ति प्रदर्शन से अचंभित था। यह सब देख कर ही भारतीय जनता की आकांक्षाएं आसमान छूने लगी। लोगों को विश्वास हो गया कि भारत सरकार और सेना कि योजना पाकिस्तान को खण्डित कर POK पर कब्जा जमा लेने की है। हालांकि न सरकार और न ही सेना की ओर से ऐसा कोई इशारा दिया गया था। परन्तु चूंकि यह स्पष्ट नजर आ रहा था कि भारत, पाकिस्तान पर हावी हो चुका है, इसलिए पाकिस्तान के विखंडन की अपेक्षाएं बढ़ गई थी। ऐसे समय में पाकिस्तान द्वारा प्रस्तावित युद्ध विराम को भारतीय सेना द्वारा स्वीकार लिया जाना निराशाजनक ही प्रतीत हुआ। इस दौरान ट्रंप की अपरिपक्व पहल ने इस निराशा को और घनीभूत कर दिया।
यहां यह समझना आवश्यक है कि एक लम्बा युद्ध अभी भारत के लिए कतई लाभदायक नहीं है। विश्व की अधिकांश शक्तियां, चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ, बांग्लादेश जैसा हमारा पड़ोसी, वैश्विक व्यापारिक शक्तियां और हमारे ही देश के चरम मोदी विरोधी यह चाहते हैं कि किसी भी तरह भारत की तेज प्रगति की दर में रुकावट आए और भारत जो शक्ति बनने जा रहा है, वह न बन सके। कश्मीर के सुधरते हालात, वहां की बढ़ती समृद्धि और शान्ति का माहौल, भारत की इस बढ़ती हुई शक्ति के प्रतीक के रूप में पूरे विश्व को नजर आने लगा था। इस शान्ति और समृद्धि की प्रक्रिया को चुनौती देने के लिए ही पहलगाम के घिनौने हत्याकांड को अंजाम दिया गया था।
मोदी सरकार इस समय कोई लम्बा संघर्ष नहीं चाहती थी। ऐसे में युद्ध विराम का प्रस्ताव आते ही उसे स्वीकार कर लेना ही देश हित मे था। निश्चित ही, मोदी की स्वयं की छवि को इस निर्णय से आघात ही पहुंचना था, परन्तु उन्होंने अपने अहंकार को देश हित मे बाधा नहीं बनने दिया और बिना शर्त युद्ध विराम को स्वीकार कर लिया। शर्तें, विशेषतः कड़ी शर्तें रखी जाने पर विराम की संभावना खत्म हो सकती थी, जो प्रस्तुत परिस्थिति में वांछनीय नहीं था। भारत की दृष्टि से लक्ष्य प्राप्त हो चुके थे। आतंकवादियों को सख्त सबक सीखा दिया गया था। पाकिस्तान को भी भारतीय शक्ति से परिचित करवा दिया गया था। तीन दिन के संघर्ष में यह अच्छी तरह से सिद्ध हो चुका था कि पाकिस्तान को बड़ा नुकसान पहुंचाना भारत के लिए सहज साध्य है। भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर वैसा किया भी जा सकता है। इस दौरान, जबकि भारत समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर है, पाकिस्तान स्वयं के कुकर्मों से ही बर्बादी की ओर तेजी से बढ़ रहा है। बलुचों द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा कर ही दी गई है। खैबर पख़्तून ख्वाह और सिंध प्रान्त भी दरक रहे हैं। सेना और राजनीतिक व्यवस्था का संघर्ष विनाश की ओर बढ़ रहा है। राजनीतिक नेतृत्व आकंठ भ्रष्टाचार में लिप्त है और आर्थिक दिवालियापन जग जाहिर है।
ऐसी स्थिति में जर्जर हो रहे पाकिस्तान से युद्ध कर देश की प्रगति को बाधित करना न तो समझदारी है और न ही आवश्यक। सरकार प्रारम्भ से ही अपने लक्ष्यों को लेकर स्पष्ट थी। मोदी जी के निर्णय देश हित में किए गए शुद्ध रूप से तार्किक निर्णय थे। हां, देश की जनता, विशेषतः मोदी समर्थक जरूर भावनाओं में बह कर महती सैन्य कार्यवाही की उम्मीद लगा बैठे थे। उस सम्बंध में यही कहा जा सकता है कि धैर्य रखें, संभव है कि निकट भविष्य में वांछित परिणाम बिना किसी बड़े सैन्य संघर्ष के ही मिल जाए!
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर