अंबेडकर को समझने का सही समय
डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’
सेवा निवृत्त प्राचार्य, केंद्रीय विद्यालय संगठन एवं सदस्य- मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निर्माण एवं देखरेख समिति एवं विद्या भारती मध्य क्षेत्र, भोपाल
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हर युवक के अपने सपने होते हैं। जब युवक सही चिंतन के साथ राष्ट्र और समाज निर्माण की राह पकड़ता है तो वही एक अकेले का सपना राष्ट्र के सपना बन जाता है। आज से 134 साल पहले 1891 में जन्में भीमराव सकपाल का राष्ट्र और समाज निर्माण का सपना आज संविधान के रूप में हमारे सामने है। 14 अप्रैल 1891 में मिलट्री हेड क्वार्टर ऑफ वार, मालवा क्षेत्र के इंदौर जिले में उस समय की छोटी सी छावनी जिसे महू के नाम से जाना जाता था और अब अंबेडकरनगर के नाम से विख्यात है। सीताराम जी मौला जी और माता भीमाबाई की गोद में जन्मे डॉ भीमराव अंबेडकर का पैतृक गांव महाराष्ट्र में रत्नागिरी जिले के मंडणगढ़ तहसील के आम्बरावडे गांव है। उनके पिता राम जी तथा दादा मौला जी सकपाल फौज में लंबे समय से नौकरी करते आए थे।
किवदंती के अनुसार पिता और माता कबीर के महान अनुयाई थे। 5 वर्ष की आयु में भीमराव के सिर से मां का साया उठ गया और उनका लालन-पालन बूआ जिनका नाम मीरा था, के घर हुआ था। लिखित दस्तावेजों के अनुसार भीमराव की कुशाग्र बुद्धि तथा तेज गति से ज्ञानार्जन करने की प्रक्रिया से प्रभावित होकर एक ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर ने भीमराव सकपाल को “अंबेडकर” उप नाम दिया था जो आगे चलकर उनके नाम का अभिन्न हिस्सा बना और आज भीमराव उसी “अंबेडकर” उपनाम से संसार में प्रसिद्ध है।
देश अंग्रेजों के अधिक होने के कारण महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में पढ़ते समय स्वतंत्रता आंदोलन के तपे हुए सेनानियों के संपर्क में आने और उन्हें जानने, सुनने तथा समझने का अवसर युवक अंबेडकर को मिला। 1907 अर्थात 15 वर्ष की आयु में मैट्रिक परीक्षा प्राप्त कर भीमराव अंबेडकर ने ‘एलिंफस्टन’ कॉलेज मुंबई में प्रवेश लिया तथा 1912 में स्नातक और 1915 में स्नातकोत्तर उपाधि कोलंबिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में प्राप्त की। उपाधि में उनका शोध का विषय प्राचीन भारत का वाणिज्य था। शिक्षा प्राप्ति के बाद अंबेडकर जी ने बड़ौदा महाराजा के यहां सेना विभाग तथा अर्थ सचिव के रूप में कार्य किया। कहते हैं कि बड़ौदा महाराज के यहां सचिव की नौकरी करते समय महार जाति का होने के कारण उनको अनेक अपमान सहना पड़े और दुखी होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और मुंबई आ गए।
आज के युवकों के मन में यह प्रश्न उठता होगा कि अंबेडकर इतने अदम्य साहस के व्यक्ति कैसे बने? सत्य का उद्घाटन यह है कि भीमराव का पालन पोषण कबीर पंथी विचारधारा में होने तथा 19 वीं सदी के स्वतंत्रता विचारक- गांधी, नेहरू, डॉ राजेंद्र प्रसाद , डॉ राधाकृष्णन, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी, पुरुषोत्तम दास टंडन, गोविंद बल्लभ पंत, एमके मुंशी, कृष्ण मेनन, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और आदिवासी स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी टूट्या मामा, लग्जरी बाई आदि के विचारों से प्रेरित तथा सामाजिक असमानता का दंश में दिन रात तपने के कारण एक प्रभाव कारी अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, कानून ज्ञाता और संवेदनशील बनकर दलितों के मसीहा बनने वाले व्यक्ति थे , डॉक्टर भीमराव अंबेडकर।
8 अगस्त 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन में अंबेडकर ने पहली बार अपनी राजनीतिक, और सामाजिक दृष्टिकोण को दुनिया के सामने रखा। जिसके अनुसार “शोषित वर्ग की सुरक्षा सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।” इस ऐतिहासिक भाषण के बाद डॉ भीमराव अंबेडकर देश- विदेश में जाने पहचाने लगे। इन्हीं सामाजिक -धार्मिक परिवर्तन के क्रांतिकारी विचारों के कारण जनमानस डॉ भीमराव अंबेडकर को “बाबा साहब” नाम से पुकारने लगा।
आज जब हम डॉ अंबेडकर के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का अध्ययन करने के बाद समझने का प्रयास करते हैं तो अंबेडकर को कई रूपों में पाते हैं। यथा, समाज वैज्ञानिक , सफल राजनेता , राजनीतिज्ञ , बौद्ध धर्म के अनुयाई , संविधान सभा के मसौदा समिति के अध्यक्ष, दलितों के महानायक , और इन सबसे बढ़कर भारत माता को विश्व का सबसे विशाल स्वच्छ- सुंदर -धवल संविधान देने वाले अंबेडकर।
1942 में आगरा के एक सम्मेलन में डॉ अंबेडकर ने कहा था कि “जिस समाज में डॉक्टर, वकील, अध्यापक और व्यापारी हो वह वर्ग पिछड़ा नहीं हो सकता”! उसके साथ सामाजिक धार्मिक भेदभाव नहीं होना चाहिए। दुर्भाग्य से भारत में आज अनुसूचित जाति में हजारों की संख्या में डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, वकील और व्यापारी होते हुए भी पिछड़ेपन का भाव दूर नहीं हुआ है। बाबा साहब का समता, और समानता का सपना आज भी अधूरा ही है। दोष वर्ण व्यवस्था को दिया जाने की चेष्टा होती है। यह गलत है। दोषी वर्ण व्यवस्था नहीं, बाबा साहब के अनुयाई हैं, क्योंकि उन्होंने बाबा साहब की भावना को समझा ही नहीं! उनका नारा था “शिक्षित बनो”, “संगठित बनों “, संघर्ष करो”। अंबेडकर के इन तीनों ही पवित्र भावना को अनुसूचित जाति समाज ने न तो समझा और न ही युवाओं को समझने का प्रयास किया । ‘शिक्षित बनो’ का सपना उनका अधूरा रह गया। ‘संगठन’ के नाम पर इतने सारे संगठन खड़े कर लिए की उनके अनुयाई अपने को ठगा सा महसूस करते हैं।
‘संघर्ष करो’ नारे के पीछे अंबेडकर जी का उद्देश्य था कि समाज में पारंपरिक बुरिइयां है, उन्हें शिक्षित होकर संगठित तरीके से दूर करना है। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ।
यह सत्य है कि उस समय समाज में व्याप्त छुआछूत तथा वर्ण आधारित भेदभाव जो सदियों से हिंदू समाज में विरासत में मिला था, उस दृष्टिकोण को बड़े स्तर पर बदलने का प्रयास अत्यंत कठिन था और आज भी है। जितनी कठिनाई आक्रांताओं और अंग्रेजों के समय थी, उतनी ही कठिनाई आज आजादी के 76 साल बाद भी विद्यमान है !!
वर्तमान में केंद्र स और राज्य सरकारें जितने भी कार्यक्रम अपने हाथ में लेती है और अपने अधिकारियों से उनके सफलतापूर्वक क्रियान्वयन की अपेक्षा करती है, वह सारे कार्यक्रम डॉक्टर बाबा साहब के विचारों के इर्द-गिर्द के ही हैं। बाबा साहेब स्त्री शिक्षा और आर्थिक सुधार के पक्षधर थे। स्वच्छता मिशन, ग्रामीण विकास, घर घर नल जल, सड़क निर्माण, शिक्षा में गुणवत्ता, भाईचारा जैसे तमाम विषय रह-रह याद दिलाते हैं कि यही सपने तो बाबा साहब ने अपने सार्वजनिक जीवन में तथा संविधान का निर्माण करते समय देखे थे और उनको पूरा करने की आशा सरकारों से लगाई थी।
आज का प्रत्येक नागरिक डॉ भीमराव अंबेडकर का ताउम्र ऋणी रहेगा। क्योंकि उन्होंने नागरिक सरोकार संविधान में मौलिक अधिकार
और कर्तव्य के रूप में समाहित किए हैं, जो एक राष्ट्र को, एक समाज को और एक व्यक्ति को अपना विकास करने के लिए जरूरी है। कोई भी महापुरुष किसी एक जाति या धर्म का नहीं होता है। उनके विचारों से समूचा मानव समाज लाभान्वित होता है। दुर्भाग्य से राजनीति के चलते भीमराव अंबेडकर को एक विशेष तपके का व्यक्ति निरूपित करने की चेष्टा हो रही है। उनकी जन्म जयंती पर हम विचार करें कि क्या बाबा साहब केवल अनुसूचित जाति – जनजाति के हित के लिए ही कार्य करके गए? क्या वे केवल अनुसूचित जाति, जनजाति, अल्पसंख्यक के ही महानायक है? क्या संविधान 140 करोड़ देशवासियों के लिए नहीं है? आज उनके विचारों को इस संदर्भ में समझना जरूरी है कि इस महामानव ने भारत माता के प्रत्येक व्यक्ति के बारे में चिंतन किया है। अब उनके अनुयायियों को यह समझना होगा कि वह केवल एक जाति या धर्म या प्रांत के न प्रणेता न होकर संपूर्ण राष्ट्र और मानवता के पुजारी थे। 14 अप्रैल को ही ढोल धमाके के साथ दीक्षाभूमि और जन्मभूमि पर जाना ही पर्याप्त नहीं है ! उनके लिए सच्ची आदरांजलि यही होगी कि हम देशवासी उनके कार्यों को समझें, उनके विचारों को जीवन में अपनायें और 21वीं सदी के भारत को चाहु मुखी विकास की ओर आगे ले जाए।
डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’